Answer: आशापूर्णा देवी
भारतीय साहित्य के इतिहास में ज्ञानपीठ पुरस्कार का एक विशिष्ट स्थान है, जो देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान है। यह पुरस्कार किसी भी भारतीय भाषा के असाधारण साहित्यिक योगदान को मान्यता देता है। इस प्रतिष्ठित सम्मान को प्राप्त करने वाली पहली महिला साहित्यकार आशापूर्णा देवी थीं, जिन्होंने 1976 में यह गौरव हासिल किया। यह क्षण भारतीय साहित्य के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था, जिसने न केवल उनकी अद्वितीय प्रतिभा को स्वीकार किया, बल्कि भारतीय महिला लेखिकाओं की बढ़ती पहचान और उनके महत्वपूर्ण योगदान को भी रेखांकित किया। आशापूर्णा देवी का जन्म 1909 में कोलकाता के एक रूढ़िवादी वैद्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके समय में लड़कियों के लिए औपचारिक शिक्षा प्राप्त करना असामान्य था, लेकिन आशापूर्णा ने अपनी अटूट लगन और सीखने की अदम्य इच्छा के माध्यम से खुद को शिक्षित किया।
आशापूर्णा देवी ने अपने घर के विशाल पुस्तकालय में मौजूद किताबों के माध्यम से स्व-शिक्षा प्राप्त की, जो उनके बड़े भाई-बहनों के लिए थीं। उन्होंने छिप-छिपकर पढ़ना और लिखना सीखा, और बहुत कम उम्र में ही साहित्य के प्रति उनका गहरा प्रेम विकसित हो गया। उनकी पहली कहानी एक बाल पत्रिका में 1922 में प्रकाशित हुई थी, जब वह सिर्फ 13 वर्ष की थीं। उनका प्रारंभिक लेखन अक्सर घरेलू जीवन और महिलाओं के निजी अनुभवों पर केंद्रित होता था, जो उनके बाद के लेखन की नींव बना। अपने जीवन के शुरुआती दिनों में ही उन्हें एक समाज में महिलाओं की स्थिति की गहरी समझ हो गई थी, जो उनकी रचनात्मकता को लगातार आकार देती रही।
आशापूर्णा देवी का साहित्यिक जीवन असाधारण रूप से उत्पादक रहा। उन्होंने 200 से अधिक उपन्यास, 3,000 से अधिक लघुकथाएँ और कई बच्चों की किताबें लिखीं। उनका लेखन मुख्यतः बंगाली में था, और उनकी कहानियाँ अक्सर पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के संघर्षों, उनकी आंतरिक दुनिया, उनकी आकांक्षाओं और उनके द्वारा झेली जाने वाली बाधाओं को दर्शाती थीं। उन्होंने यथार्थवाद और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि के साथ अपने पात्रों को चित्रित किया, जिससे पाठक उनके अनुभवों से गहराई से जुड़ पाते थे। उनकी कृतियों में सामाजिक परंपराओं और आधुनिकता के बीच का द्वंद्व, और महिलाओं की आत्म-पहचान की खोज प्रमुख विषय थे।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कृतियों में से एक उनकी त्रयी है, जिसमें 'प्रथम प्रतिश्रुति' (1964), 'सुवर्णलता' (1967) और 'बकुल कथा' (1974) शामिल हैं। यह त्रयी तीन पीढ़ियों की बंगाली महिलाओं के जीवन को दर्शाती है, जो सामाजिक प्रतिबंधों, आकांक्षाओं और स्वतंत्रता की उनकी खोज को चित्रित करती है। 'प्रथम प्रतिश्रुति', जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, सत्यवती नामक एक युवा लड़की की कहानी है जो अपने समय के सामाजिक मानदंडों के खिलाफ शिक्षा और व्यक्तिगत पहचान के अधिकार के लिए लड़ती है। यह उपन्यास भारतीय महिला के आत्म-अन्वेषण और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का एक गहन दस्तावेज है। यह त्रयी समाज में महिलाओं की स्थिति में आए परिवर्तनों और उनकी लगातार बदलती भूमिकाओं का एक सूक्ष्म अवलोकन प्रस्तुत करती है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार, जिसकी स्थापना 1961 में साहू जैन परिवार द्वारा स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ संगठन द्वारा की गई थी, भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध किसी भी भाषा में लिखने वाले भारतीय लेखकों को उनके 'साहित्य में उत्कृष्ट योगदान' के लिए प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार भारतीय भाषाओं में उच्च गुणवत्ता वाले लेखन को प्रोत्साहित करने और मान्यता देने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार 1965 में मलयालम लेखक जी. शंकर कुरुप को उनके काव्य संग्रह 'ओडक्कुझल' के लिए प्रदान किया गया था। पुरस्कार में 11 लाख रुपये की नकद राशि, एक प्रशस्ति पत्र और ज्ञान की देवी वाग्देवी (सरस्वती) की कांस्य प्रतिकृति शामिल है। यह भारतीय साहित्य के विभिन्न भाषाई पहलुओं को एक राष्ट्रीय मंच पर लाने का कार्य करता है।
आशापूर्णा देवी को 1976 में 'प्रथम प्रतिश्रुति' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना, केवल एक व्यक्तिगत सम्मान नहीं था, बल्कि यह भारतीय महिला साहित्यकारों के लिए एक महत्वपूर्ण पहचान थी। उन्होंने एक ऐसे युग में लिखना शुरू किया था जब महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से अपनी आवाज़ उठाना और साहित्यिक दुनिया में अपनी जगह बनाना चुनौतीपूर्ण था। उनका यह पुरस्कार जीतना इस बात का प्रतीक था कि महिलाओं द्वारा लिखे गए साहित्य को अब भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में गंभीरता से लिया जा रहा था, और यह महिलाओं के अनुभवों को राष्ट्रीय महत्व का दर्जा प्रदान करता था। उन्होंने साबित किया कि घरेलू दायरे की कहानियों में भी सार्वभौमिक मानवीय भावनाओं और सामाजिक जटिलताओं को व्यक्त करने की शक्ति होती है।
अपने लंबे साहित्यिक जीवन में, आशापूर्णा देवी ने विभिन्न विधाओं में योगदान दिया। उनकी कृतियों का कई अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनुवाद किया गया, जिससे उनकी पहुंच और प्रभाव बढ़ा। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई लोकप्रिय कहानियाँ और उपन्यास लिखे, जिससे वे युवा पाठकों के बीच भी लोकप्रिय हुईं। उनकी कहानियाँ अक्सर सूक्ष्म सामाजिक टिप्पणियों, गहरी मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि और एक मार्मिक मानवीय स्पर्श से भरी होती थीं, जो उन्हें कालातीत बनाती थीं। उन्होंने बंगाली साहित्य में एक ऐसी पहचान बनाई जिसे न केवल बंगाल, बल्कि पूरे भारत में सराहा गया।
आशापूर्णा देवी की सफलता ने अन्य महिला लेखिकाओं को अपनी कहानियों को कहने के लिए प्रेरित किया। भारतीय साहित्य में महिला लेखन का एक समृद्ध इतिहास रहा है, जिसमें महादेवी वर्मा (हिंदी), अमृता प्रीतम (पंजाबी), इस्मत चुगताई (उर्दू), कुर्रतुलैन हैदर (उर्दू) और कमला दास (मलयालम) जैसी लेखिकाएं शामिल हैं। इन लेखिकाओं ने अपनी-अपनी भाषाओं में महिलाओं के अनुभवों, उनके आंतरिक संघर्षों, सामाजिक बंधनों और आत्म-खोज की उनकी यात्रा को व्यक्त किया है। उन्होंने पारंपरिक सीमाओं को चुनौती दी और महिलाओं के लिए नई साहित्यिक और सामाजिक जगह बनाई। आशापूर्णा देवी ने इस परंपरा को और भी सशक्त बनाया।
बंगाली साहित्य का भारतीय साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे दिग्गज शामिल हैं। आशापूर्णा देवी ने इस समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाया और उसे एक नई दिशा दी। उनके लेखन ने बंगाली समाज के बदलते परिदृश्य को कैद किया और समकालीन मुद्दों पर प्रकाश डाला। बंगाली साहित्य ने हमेशा सामाजिक चेतना और कलात्मक अभिव्यक्ति का एक मजबूत संयोजन प्रस्तुत किया है, और आशापूर्णा देवी इसका एक उज्ज्वल उदाहरण हैं। उन्होंने भाषा और शैली पर अपनी अद्भुत पकड़ का प्रदर्शन किया, जिससे उनके पाठकों को एक गहरा और स्थायी अनुभव प्राप्त हुआ।
आशापूर्णा देवी की विरासत आज भी जीवित है। उनकी कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे मानवीय भावनाओं और सामाजिक संरचनाओं के कालातीत पहलुओं को छूती हैं। उन्होंने महिलाओं को अपनी आवाज़ खोजने और अपनी पहचान स्थापित करने के लिए प्रेरित किया, जो न केवल साहित्यिक उत्कृष्टता का उदाहरण हैं, बल्कि सामाजिक टिप्पणी और नारीवादी चेतना के महत्वपूर्ण दस्तावेज भी हैं। उन्होंने अपने शब्दों के माध्यम से समाज को सोचने और सवाल उठाने पर मजबूर किया। उनका काम सिर्फ अतीत का दर्पण नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक प्रेरणा भी है, जो हमें सामाजिक न्याय और समानता के लिए लगातार प्रयास करने की याद दिलाता है।
आशापूर्णा देवी ने भारतीय साहित्य में महिला लेखन के लिए एक नया मानदंड स्थापित किया। उन्होंने न केवल ज्ञानपीठ पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला बनकर इतिहास रचा, बल्कि उन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से अनगिनत महिलाओं के जीवन को भी छुआ और प्रेरित किया। उनकी कहानियां आज भी हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि कैसे व्यक्तिगत अनुभव बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से जुड़े होते हैं। उनकी रचनाएं भारतीय समाज में महिलाओं की प्रगति और संघर्षों का एक अमूल्य दर्पण हैं। क्या भारतीय साहित्य ने, आशापूर्णा देवी के बाद, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक परिवर्तन के मुद्दों को उसी गहराई और प्रभाव के साथ संबोधित करना जारी रखा है?