Answer: पृथ्वी (Prithvi)
रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) भारत की रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने में एक आधारशिला है। यह भारतीय सशस्त्र बलों के लिए अत्याधुनिक रक्षा प्रौद्योगिकियों, प्रणालियों और उत्पादों को डिजाइन, विकसित और उत्पादन करने के लिए जिम्मेदार प्रमुख सरकारी एजेंसी है। 1958 में स्थापित, DRDO तीन संस्थाओं - तकनीकी विकास प्रतिष्ठान (TDEs), रक्षा विज्ञान संगठन (DSO), और तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय (DTDP) के विलय से अस्तित्व में आया। इसका मुख्य उद्देश्य भारत को रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना है, जिससे देश की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
DRDO का दृष्टिकोण रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मिसाइलों, राडार, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणालियों, पनडुब्बी रोधी हथियारों, लड़ाकू वाहनों और सामग्री विज्ञान सहित कई क्षेत्रों में विश्व-स्तरीय रक्षा प्रौद्योगिकियों का विकास करना है। इसका मिशन भारतीय सेना, नौसेना और वायु सेना की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने वाले अत्याधुनिक हथियार प्रणालियों और प्लेटफार्मों के अनुसंधान, डिजाइन, विकास और मूल्यांकन में उत्कृष्टता प्राप्त करना है। इन प्रयासों के माध्यम से, DRDO न केवल भारत की रक्षा तत्परता को बढ़ाता है बल्कि विदेशी सैन्य हार्डवेयर पर निर्भरता को भी कम करता है, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता में महत्वपूर्ण योगदान मिलता है।
DRDO की सबसे प्रतिष्ठित और दूरदर्शी पहलों में से एक 'एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम' (Integrated Guided Missile Development Program - IGMDP) था। यह कार्यक्रम भारत को मिसाइल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के व्यापक लक्ष्य के साथ 1983 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम की कल्पना और नेतृत्व भारत के महान वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने किया था, जिन्हें 'भारत के मिसाइल मैन' के नाम से जाना जाता है। IGMDP का उद्देश्य विभिन्न प्रकार की मिसाइल प्रणालियों का एक समूह विकसित करना था जो भारतीय सशस्त्र बलों की विभिन्न परिचालन आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।
IGMDP के तहत विकसित की गई पहली प्रमुख मिसाइल 'पृथ्वी' थी। 'पृथ्वी' सतह से सतह पर मार करने वाली कम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल (SRBM) है, जिसे भारत की सामरिक रक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। इसका पहला सफल परीक्षण 25 फरवरी, 1988 को चांदीपुर, ओडिशा के एकीकृत परीक्षण रेंज से किया गया था। यह परीक्षण भारत के रक्षा इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ, जिसने मिसाइल विकास में देश की क्षमताओं को प्रदर्शित किया और IGMDP के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 'पृथ्वी' मिसाइल ने भारतीय सेना के बेड़े में प्रवेश किया और बाद में इसके कई उन्नत संस्करण विकसित किए गए।
IGMDP के तहत 'पृथ्वी' के अलावा चार अन्य महत्वपूर्ण मिसाइल प्रणालियाँ विकसित की गईं: अग्नि, त्रिशूल, आकाश और नाग। 'अग्नि' श्रृंखला की मिसाइलें मध्यम से अंतरमहाद्वीपीय दूरी तक मार करने वाली बैलिस्टिक मिसाइलें हैं, जिन्हें भारत की रणनीतिक प्रतिरोध क्षमता के लिए विकसित किया गया है। 'अग्नि' मिसाइल भारत की परमाणु प्रतिरोध क्षमता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे विभिन्न श्रेणियों में विकसित किया गया है, जैसे अग्नि-I, अग्नि-II, अग्नि-III, अग्नि-IV, अग्नि-V और हाल ही में अग्नि-P। इन मिसाइलों ने भारत को उन चुनिंदा देशों के क्लब में शामिल किया है जिनके पास लंबी दूरी की मिसाइलें हैं।
'त्रिशूल' एक छोटी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल थी, जिसे त्वरित प्रतिक्रिया की आवश्यकता वाले युद्धक्षेत्र वायु रक्षा के लिए डिज़ाइन किया गया था। हालांकि इसे बाद में अन्य प्रणालियों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, इसने स्वदेशी सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रौद्योगिकी के विकास में महत्वपूर्ण ज्ञान प्रदान किया। 'आकाश' एक मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली है जिसका उपयोग हवाई खतरों को रोकने के लिए किया जाता है। यह भारतीय सेना और भारतीय वायु सेना दोनों में एक महत्वपूर्ण हवाई रक्षा घटक है, जो बहु-लक्ष्य क्षमता और इलेक्ट्रॉनिक जवाबी उपाय (ECCM) क्षमताओं से लैस है।
'नाग' तीसरी पीढ़ी की "दागो और भूल जाओ" टैंक रोधी निर्देशित मिसाइल (ATGM) है। इसे दुश्मन के बख्तरबंद वाहनों को अत्यधिक सटीकता के साथ नष्ट करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। 'नाग' मिसाइल को विभिन्न प्लेटफार्मों से लॉन्च किया जा सकता है, जिसमें हेलीकॉप्टर-लॉन्च संस्करण 'हेलिना' (अब ध्रुवास्त्र) और इन्फैंट्री के लिए 'नामिका' (नाग मिसाइल वाहक) शामिल हैं। 'नाग' मिसाइल का सफल विकास भारत को उन गिने-चुने देशों में से एक बनाता है जिनके पास स्वदेशी रूप से विकसित "दागो और भूल जाओ" क्षमता वाली टैंक रोधी मिसाइल है।
मिसाइलों के अलावा, DRDO ने रक्षा प्रौद्योगिकी के अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय प्रगति की है। इनमें उन्नत रडार प्रणालियाँ जैसे 'राजेंद्र' रडार (आकाश मिसाइल के लिए), इलेक्ट्रॉनिक युद्ध सूट, संचार प्रणालियाँ, पनडुब्बी रोधी युद्ध प्रणालियाँ और सोनार शामिल हैं। इन प्रणालियों ने भारतीय सशस्त्र बलों को दुश्मन के खतरों का पता लगाने, ट्रैक करने और बेअसर करने की क्षमता में काफी वृद्धि की है, जिससे उन्हें आधुनिक युद्ध के मैदान में एक महत्वपूर्ण बढ़त मिली है।
वैमानिकी के क्षेत्र में, DRDO ने भारत के स्वदेशी हल्के लड़ाकू विमान (LCA) 'तेजस' के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जबकि HAL मुख्य निर्माता है, DRDO की विभिन्न प्रयोगशालाओं ने तेजस के लिए महत्वपूर्ण प्रणालियों और उप-प्रणालियों, जैसे एविओनिक्स, रडार, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सूट और उड़ान नियंत्रण प्रणालियों के विकास में योगदान दिया है। DRDO ने मानव रहित हवाई वाहन (UAV) और अन्य वायु प्रणालियों के विकास पर भी काम किया है, जो भविष्य के हवाई युद्ध के लिए भारत की तैयारियों को मजबूत कर रहे हैं।
नौसेना प्रणालियों में, DRDO ने टॉरपीडो, सोनार प्रणालियों और जल के नीचे निगरानी उपकरणों के डिजाइन और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 'वरुणास्त्र' हेवीवेट टॉरपीडो और 'मारीच' उन्नत टॉरपीडो रक्षा प्रणाली DRDO की नौसेना अनुसंधान क्षमताओं के प्रमुख उदाहरण हैं। ये प्रणालियाँ भारतीय नौसेना को समुद्री खतरों से निपटने और अपने परिचालन क्षेत्रों में प्रभुत्व बनाए रखने में सक्षम बनाती हैं, जिससे भारत की समुद्री सुरक्षा काफी मजबूत होती है।
भूमि युद्ध प्रणालियों के लिए, DRDO ने मुख्य युद्धक टैंक (MBT) 'अर्जुन' का विकास किया है। 'अर्जुन' टैंक को भारतीय सेना की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप डिजाइन किया गया है और यह उन्नत कवच, शक्तिशाली आयुध और आधुनिक फायर कंट्रोल सिस्टम से लैस है। इसके अतिरिक्त, DRDO ने हल्के और मजबूत सामग्री के विकास पर भी काम किया है जो रक्षा अनुप्रयोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं, जैसे मिश्र धातु, सिरेमिक और कंपोजिट। ये सामग्री प्रणालियों के वजन को कम करने और उनके प्रदर्शन को बढ़ाने में मदद करती हैं।
DRDO का कार्य केवल हथियार प्रणालियों तक ही सीमित नहीं है; इसने जीवन विज्ञान और चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तैनात सैनिकों के लिए विशेष कपड़े, भोजन और चिकित्सा समाधान विकसित किए हैं। प्राकृतिक आपदाओं या महामारी के दौरान, DRDO ने अपनी विशेषज्ञता का उपयोग नागरिक सहायता के लिए भी किया है, जैसे कि वेंटिलेटर, पीपीई किट और ऑक्सीजन संयंत्रों का विकास, जैसा कि COVID-19 महामारी के दौरान देखा गया था।
DRDO 'आत्मनिर्भर भारत' और 'मेक इन इंडिया' पहलों के केंद्र में है। इसका प्राथमिक लक्ष्य विदेशी निर्भरता को कम करना और भारत को रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक वैश्विक नेता बनाना है। DRDO द्वारा विकसित प्रणालियों और तकनीकों के स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देकर, भारत न केवल अपनी सुरक्षा को मजबूत कर रहा है बल्कि एक मजबूत घरेलू रक्षा औद्योगिक आधार भी बना रहा है। यह स्थानीय रोजगार के अवसर पैदा करता है और महत्वपूर्ण रक्षा प्रौद्योगिकियों में रणनीतिक स्वायत्तता सुनिश्चित करता है।
अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, DRDO निजी उद्योग, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) और शैक्षणिक संस्थानों के साथ व्यापक रूप से सहयोग करता है। यह साझेदारी अनुसंधान से लेकर उत्पादन तक की प्रक्रिया को तेज करती है, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ावा देती है और नवाचार को बढ़ावा देती है। कई DRDO विकसित प्रौद्योगिकियों को निजी कंपनियों को लाइसेंस दिया गया है, जिससे उन्हें रक्षा उत्पादों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने और भारत के निर्यात आधार में योगदान करने में मदद मिली है।
अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद, DRDO चुनौतियों से मुक्त नहीं है। इनमें कुछ परियोजनाओं में समय और लागत का अधिक लगना, प्रोटोटाइप से बड़े पैमाने पर उत्पादन तक की प्रक्रिया में देरी, और कभी-कभी निजी क्षेत्र के साथ तालमेल बिठाने में चुनौतियाँ शामिल हैं। आलोचक कभी-कभी DRDO उत्पादों की गुणवत्ता और सेना द्वारा उनके अंतिम अपनाने पर सवाल उठाते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, DRDO प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने, दक्षता बढ़ाने और उपयोगकर्ता की आवश्यकताओं के साथ बेहतर ढंग से जुड़ने के लिए लगातार प्रयासरत है।
भविष्य में, DRDO कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), मशीन लर्निंग, साइबर सुरक्षा, क्वांटम प्रौद्योगिकी, हाइपरसोनिक उड़ान और निर्देशित ऊर्जा हथियारों जैसे उभरते क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा है। इन अत्याधुनिक तकनीकों को विकसित करना आधुनिक युद्ध के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण होगा। DRDO का लक्ष्य इन क्षेत्रों में अग्रणी बने रहना है ताकि भारतीय सशस्त्र बलों को भविष्य के खतरों से निपटने के लिए आवश्यक क्षमताएं मिल सकें और भारत एक प्रमुख रक्षा निर्यातक के रूप में उभरे।
DRDO की सफलताएं सिर्फ सैन्य नहीं हैं; उन्होंने वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति को भी बढ़ाया है। एक आत्मनिर्भर रक्षा प्रौद्योगिकी आधार वाले देश के रूप में, भारत अपनी विदेश नीति और सुरक्षा रणनीति को अधिक स्वतंत्रता के साथ आगे बढ़ा सकता है। यह अन्य देशों के साथ रक्षा सहयोग में भी अधिक आत्मविश्वास से भाग लेता है, क्योंकि यह अब सिर्फ एक खरीदार नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी प्रदाता और नवाचार भागीदार है।
संक्षेप में, रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) भारत की रक्षा रीढ़ की हड्डी है, जो देश को स्वदेशी प्रौद्योगिकी और आत्मनिर्भरता के माध्यम से सशक्त बनाता है। IGMDP जैसी इसकी पहलों ने भारत को मिसाइल शक्ति के रूप में स्थापित किया है, जबकि इसके व्यापक अनुसंधान ने सशस्त्र बलों के लिए विभिन्न अत्याधुनिक प्रणालियों को जन्म दिया है। DRDO भारत को एक सुरक्षित, मजबूत और तकनीकी रूप से उन्नत राष्ट्र बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या DRDO, अपनी क्षमताओं और विशेषज्ञता के साथ, भारत को रक्षा क्षेत्र में पूर्ण आत्मनिर्भरता की ओर ले जा सकता है, या अभी भी विदेशी सहयोग अपरिहार्य रहेगा?