Answer: दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी।
भारतीय साहित्य, विश्व के सबसे प्राचीन और समृद्ध साहित्यिक परंपराओं में से एक है। इसका इतिहास हजारों साल पुराना है, जो वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक फैला हुआ है। इस विशाल और विविध साहित्यिक परिदृश्य में, कालिदास का नाम एक ऐसे नक्षत्र की तरह चमकता है, जिसकी आभा आज भी पाठकों और विद्वानों को समान रूप से आकर्षित करती है। उन्हें अक्सर 'भारत का शेक्सपियर' भी कहा जाता है, जो उनकी रचनाओं की सार्वभौमिक अपील और साहित्यिक उत्कृष्टता का प्रतीक है। कालिदास की कृतियों में, 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' (Abhijñānaśākuntalam) एक ऐसा रत्न है, जिसने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप बल्कि विश्व के साहित्य पर भी अमिट छाप छोड़ी है।
'अभिज्ञानशाकुंतलम्' कालिदास के तीन नाटकों में से सबसे प्रसिद्ध और बहुचर्चित है। यह मूल रूप से संस्कृत भाषा में लिखा गया था और इसका कथानक महाभारत के आदि पर्व से लिया गया है। हालांकि, कालिदास ने मूल कथा में अपनी प्रतिभा, कल्पना और सूक्ष्मता का समावेश कर इसे एक उत्कृष्ट साहित्यिक कृति का रूप दिया है। यह नाटक पाँचवें शताब्दी ईस्वी के आसपास लिखा गया माना जाता है, जो गुप्त काल के स्वर्ण युग का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रमाण है। उस काल को भारतीय कला, विज्ञान और साहित्य के विकास का शिखर माना जाता है, और कालिदास उस युग के सबसे प्रमुख हस्ताक्षर थे।
नाटक की कहानी राजा दुष्यंत और वनवासी कन्या शकुंतला के इर्द-गिर्द घूमती है। दुष्यंत आखेट पर निकले होते हैं जब वे एक आश्रम में प्रवेश करते हैं, जहाँ वे शकुंतला को पहली बार देखते हैं। शकुंतला महर्षि कण्व की दत्तक पुत्री है और वह उस आश्रम में पली-बढ़ी है। राजा दुष्यंत शकुंतला के सौंदर्य, लावण्य और निर्मल स्वभाव से मोहित हो जाते हैं। दोनों के बीच प्रेम पनपता है, और वे 'गंधर्व विवाह' नामक एक गुप्त विवाह संस्कार में एक-दूसरे को अपना लेते हैं। गंधर्व विवाह को उस समय एक मान्य प्रेम विवाह का रूप माना जाता था, जहाँ वर-वधू अपनी इच्छा से एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं।
दुर्भाग्यवश, उनका मिलन अल्पकालिक होता है। राजा दुष्यंत को अपने राज्य के महत्वपूर्ण कार्यों के लिए राजधानी लौटना पड़ता है, और वे शकुंतला से वादा करते हैं कि वे शीघ्र ही उसे ले आएंगे। शकुंतला, राजा के जाने के बाद, गर्भवती हो जाती है। इस बीच, एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटती है। एक दिन, जब शकुंतला राजा दुष्यंत के ख्यालों में खोई हुई है, महर्षि दुर्वासा, जो अपने तीव्र क्रोध के लिए जाने जाते हैं, आश्रम में पधारते हैं। शकुंतला, अपने विचारों में डूबी होने के कारण, उनका उचित सत्कार नहीं कर पाती। इससे क्रोधित होकर, दुर्वासा श्राप देते हैं कि वह जिस व्यक्ति को याद कर रही है, वह उसे भूल जाएगा, जैसे उसने तपस्वी का अपमान किया है।
यह श्राप नाटक के कथानक का केंद्रीय बिंदु बनता है। जब दुष्यंत शकुंतला को लेने के लिए नहीं आते, तो शकुंतला अपने पिता कण्व के कहने पर राजधानी की ओर प्रस्थान करती है। रास्ते में, जब वह राजा से मिलती है, तो वह उसे श्राप के कारण पहचान नहीं पाते। वे उसे केवल एक सामान्य वनवासी के रूप में देखते हैं और उसे अपनाने से इनकार कर देते हैं। शकुंतला इस अपमान और विरह से अत्यंत व्यथित हो जाती है। राजा दुष्यंत के प्रेम और वादे पर उसे पूरा भरोसा था, लेकिन श्राप के कारण उनका प्रेम और मिलन बाधित हो जाता है।
नाटक का दूसरा महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है जब शकुंतला एक अंगूठी (जो राजा दुष्यंत ने उसे प्रेम प्रतीक के रूप में दी थी) को पहनती है। यह अंगूठी उसकी पहचान का एक महत्वपूर्ण प्रतीक होती है। जब वह राजधानी की ओर जा रही होती है, तो एक मछुआरे को एक मछली के पेट से वह अंगूठी मिलती है। मछुआरा उसे राजा दुष्यंत के पास ले जाता है। जब दुष्यंत उस अंगूठी को देखते हैं, तो उन्हें कुछ-कुछ याद आने लगता है, लेकिन श्राप के प्रभाव के कारण वह पूर्णतः स्मरण नहीं कर पाते। अंगूठी राजा की स्मृति को धीरे-धीरे जागृत करने का माध्यम बनती है।
कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। श्राप का प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगता है, विशेषकर जब इंद्र ने राजा दुष्यंत को युद्ध में सहायता के लिए बुलाया और वे दैत्य से युद्ध करते हैं। इस युद्ध के दौरान, देवराज इंद्र राजा को एक दिव्य अस्त्र प्रदान करते हैं, और इसके साथ ही दुर्वासा के श्राप का प्रभाव भी समाप्त हो जाता है। राजा दुष्यंत को सब कुछ याद आ जाता है। उन्हें अपनी भूल और शकुंतला पर किए गए अत्याचार का पश्चाताप होता है।
अपने पश्चाताप और शकुंतला को पुनः प्राप्त करने की तीव्र इच्छा के साथ, राजा दुष्यंत स्वर्ग लोक की ओर जाते हैं, जहाँ वे अंततः शकुंतला से मिलते हैं। शकुंतला, जो अब उनके पुत्र भरत को जन्म दे चुकी होती है, राजा से उसका मिलन होता है। भरत, जो बाद में भारतवर्ष के नाम से देश को ख्याति दिलाने वाले महान सम्राट बने, उनके मिलन का साक्षी बनता है। इस प्रकार, नाटक का अंत एक सुखद पुनर्मिलन और एक नए राजवंश की स्थापना के साथ होता है।
'अभिज्ञानशाकुंतलम्' केवल प्रेम कहानी से कहीं अधिक है। यह कर्तव्य, नियति, स्मृति, क्षमा और मानवीय भावनाओं की जटिलताओं का एक सुंदर चित्रण है। कालिदास ने प्रकृति के साथ मनुष्य के गहरे संबंध को भी बड़ी कुशलता से दर्शाया है। आश्रम के दृश्य, वन के जीव-जंतु, और प्रकृति के विभिन्न रूप शकुंतला के चरित्र और उसकी भावनाओं को प्रतिबिंबित करते हैं। राजा दुष्यंत का अपने कर्तव्य और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच द्वंद्व भी एक महत्वपूर्ण विषय है।
कालिदास की भाषा अत्यंत परिष्कृत, काव्यात्मक और अलंकारिक है। उनके संवादों में हास्य, व्यंग्य, करुणा और प्रेम का अद्भुत मिश्रण है। 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' के सात अंक हैं, जिनमें से प्रत्येक अपनी विशिष्टता रखता है। नाटक की संरचना, पात्रों का विकास, और कथानक का प्रवाह अत्यंत सजीव है। कालिदास ने पात्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण में भी महारत हासिल की है, जिससे वे आज भी पाठकों के दिलों में जीवंत लगते हैं।
विश्व साहित्य में 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' का एक विशिष्ट स्थान है। इसका अनुवाद अनेक भाषाओं में हुआ है और इसने विभिन्न संस्कृतियों के साहित्यकारों को प्रेरित किया है। यह नाटक भारतीय संस्कृति, दर्शन और सौंदर्यशास्त्र की गहरी समझ प्रदान करता है। यह न केवल एक मनोरंजक कथा है, बल्कि मानवीय संबंधों और जीवन की शाश्वत सच्चाइयों पर एक गहन चिंतन भी है।
'अभिज्ञानशाकुंतलम्' कालिदास की प्रतिभा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो हमें प्रेम की शक्ति, नियति की भूमिका और क्षमा के महत्व का अहसास कराता है। यह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वे सदियों पहले थे।
क्या कालिदास की रचनाएँ आज के युग में भी उतनी ही प्रभावशाली हैं जितनी वे अपने समय में थीं?