Answer: काली मिट्टी; दक्कन का पठार (मुख्यतः महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से)
पृथ्वी की सतह पर जीवन का आधार मिट्टी है। यह केवल एक निर्जीव धूल का ढेर नहीं, बल्कि खनिजों, कार्बनिक पदार्थों, जल, वायु और अरबों सूक्ष्मजीवों का एक जटिल, जीवंत मिश्रण है जो हमारे ग्रह पर अधिकांश जीवन को सहारा देता है। मृदा विज्ञान, जिसे पेडोलॉजी भी कहा जाता है, मिट्टी के निर्माण, वर्गीकरण, भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों और पारिस्थितिक तंत्र में इसकी भूमिका का अध्ययन है। यह कृषि, वानिकी और पर्यावरण विज्ञान के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, क्योंकि मिट्टी की गुणवत्ता सीधे खाद्य उत्पादन, जल चक्र और जैव विविधता को प्रभावित करती है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए, मिट्टी का स्वास्थ्य और प्रकार समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
मिट्टी का निर्माण एक धीमी प्रक्रिया है जिसे पैडोजेनेसिस कहा जाता है, जो लाखों वर्षों में होती है। इसमें चट्टानों का अपक्षय (मौसम संबंधी कारकों द्वारा टूटना), कार्बनिक पदार्थों का अपघटन, और विभिन्न रासायनिक व जैविक प्रक्रियाओं का संयोजन शामिल होता है। जलवायु, मूल चट्टान (जिससे मिट्टी बनती है), स्थलाकृति, वनस्पति और समय - ये सभी कारक मिट्टी के प्रकार और उसकी विशेषताओं को निर्धारित करते हैं। भारत में, विविध भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों के कारण, विभिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती है, जिनमें जलोढ़ मिट्टी, काली मिट्टी, लाल मिट्टी, लेटराइट मिट्टी, शुष्क मिट्टी और पर्वतीय मिट्टी प्रमुख हैं। इन सभी मिट्टी के प्रकारों की अपनी अनूठी विशेषताएं और कृषि क्षमताएं हैं।
भारत की प्रमुख मिट्टी प्रकारों में से एक 'काली मिट्टी' है, जिसे 'रेगुर मिट्टी' के नाम से भी जाना जाता है। 'रेगुर' शब्द तेलुगु शब्द 'रेगड़ा' से लिया गया है जिसका अर्थ कपास है, क्योंकि यह मिट्टी कपास की खेती के लिए अत्यंत उपयुक्त है। यह मिट्टी दक्कन के पठार के बड़े हिस्से में फैली हुई है, जिसमें महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, कर्नाटक के उत्तरी भाग, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ हिस्से शामिल हैं। काली मिट्टी बेसाल्टिक चट्टानों के अपक्षय से बनती है, जो ज्वालामुखी विस्फोट से निकली थी। इस मिट्टी का रंग गहरा काला होता है, जो इसमें मौजूद टाइटेनियम फेरस मैग्नेटाइट और कार्बनिक पदार्थों की उच्च मात्रा के कारण होता है।
काली मिट्टी की सबसे विशिष्ट विशेषताओं में से एक इसकी उच्च जल धारण क्षमता है। यह मिट्टी अत्यधिक महीन कणों (क्ले) से बनी होती है, जो इसे चिपचिपा और नम बनाती है जब यह गीली होती है। इसकी यह क्षमता शुष्क मौसम में भी फसलों को नमी प्रदान करने में मदद करती है। हालांकि, गीली होने पर यह अत्यधिक चिपचिपी हो जाती है, जिससे इस पर काम करना मुश्किल हो जाता है। सूखने पर, यह सिकुड़ जाती है और इसमें गहरी दरारें पड़ जाती हैं, जिससे इसे 'स्वयं-जुताई' (self-ploughing) वाली मिट्टी भी कहा जाता है। ये दरारें वायु के संचार में सहायक होती हैं और मिट्टी को हवादार बनाती हैं।
रासायनिक रूप से, काली मिट्टी कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने से भरपूर होती है। इसमें लौह, एल्यूमीनियम और मैग्नीशियम के सिलिकेट भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। हालांकि, यह नाइट्रोजन, फास्फोरस और कार्बनिक पदार्थों (ह्यूमस) की मात्रा में अपेक्षाकृत कम होती है। यह कमी इन पोषक तत्वों वाले उर्वरकों के उपयोग को आवश्यक बनाती है ताकि फसलों की पैदावार बढ़ाई जा सके। इसकी क्षारीय प्रकृति और अच्छी जल धारण क्षमता इसे कई प्रकार की फसलों के लिए आदर्श बनाती है, विशेष रूप से उन फसलों के लिए जिन्हें लगातार नमी की आवश्यकता होती है।
काली मिट्टी का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग कपास की खेती में है, यही कारण है कि इसे 'कपास की काली मिट्टी' भी कहा जाता है। कपास के अलावा, यह गन्ना, तंबाकू, ज्वार, गेहूं, अलसी, मूंगफली, मक्का, बाजरा और विभिन्न प्रकार की दालों जैसी फसलों के लिए भी बहुत उपयुक्त है। दक्कन के पठार क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में काली मिट्टी का महत्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि यह लाखों किसानों की आजीविका का आधार है। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में कपास उद्योग का विकास काफी हद तक इस मिट्टी की उपलब्धता पर निर्भर करता है।
हालांकि, काली मिट्टी की कुछ चुनौतियां भी हैं। इसकी चिपचिपी प्रकृति के कारण, मानसून के मौसम में जब यह गीली होती है, तो इस पर कृषि कार्य करना कठिन हो जाता है। साथ ही, जब यह बहुत सूख जाती है, तो यह इतनी कठोर हो जाती है कि इसे तोड़ना मुश्किल हो जाता है। उचित जल निकासी प्रणाली का अभाव जलभराव का कारण बन सकता है, खासकर भारी बारिश के बाद, जिससे फसलों को नुकसान हो सकता है। इसलिए, इस मिट्टी का प्रबंधन करते समय सावधानी और उपयुक्त कृषि तकनीकों की आवश्यकता होती है।
मिट्टी के स्वास्थ्य और उर्वरता को बनाए रखने के लिए विभिन्न संरक्षण उपायों को अपनाना महत्वपूर्ण है। इसमें फसल चक्रण (फसल रोटेशन), कार्बनिक खाद का उपयोग, न्यूनतम जुताई (नो-टिल या कंजर्वेशन टिलिज), समोच्च जुताई (कंटूर प्लॉइंग) और वृक्षारोपण शामिल हैं। ये उपाय मिट्टी के कटाव को कम करने, उसकी संरचना में सुधार करने और उसकी जल धारण क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं। विशेष रूप से काली मिट्टी के लिए, मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ाना और उचित जल निकासी सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है ताकि इसकी उत्पादकता को बनाए रखा जा सके।
जलोढ़ मिट्टी, जो भारत के उत्तरी मैदानों में पाई जाती है, काली मिट्टी से काफी भिन्न होती है। जलोढ़ मिट्टी नदियों द्वारा लाई गई गाद से बनती है और यह अत्यधिक उपजाऊ होती है, नाइट्रोजन और फास्फोरस जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होती है, जबकि काली मिट्टी में इनकी कमी होती है। लाल मिट्टी, जो लौह ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण लाल रंग की होती है, आमतौर पर कम उपजाऊ होती है और काली मिट्टी की तुलना में कम जल धारण क्षमता रखती है। प्रत्येक मिट्टी का प्रकार अपनी विशिष्ट पारिस्थितिकी और कृषि प्रणालियों का समर्थन करता है।
मिट्टी की गुणवत्ता सीधे जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय स्थिरता से जुड़ी हुई है। स्वस्थ मिट्टी कार्बन को अलग करती है, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करती है, और पानी को बेहतर ढंग से फिल्टर करके जल संसाधनों की रक्षा करती है। औद्योगिककरण और शहरीकरण के कारण उपजाऊ कृषि भूमि का नुकसान एक गंभीर चिंता का विषय है, जिससे खाद्य सुरक्षा पर सीधा असर पड़ता है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी के सूक्ष्मजीवों को नुकसान पहुंचा सकता है और इसकी प्राकृतिक उर्वरता को कम कर सकता है, जिससे लंबी अवधि में मिट्टी बंजर हो सकती है।
सरकार और कृषि संगठनों द्वारा मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जैसे विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिनका उद्देश्य किसानों को उनकी मिट्टी के पोषक तत्वों की स्थिति के बारे में जानकारी प्रदान करना और उन्हें उचित उर्वरक व कृषि पद्धतियों का उपयोग करने की सलाह देना है। टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना, जैसे जैविक खेती, फसल विविधीकरण और कृषि वानिकी, मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने और उसकी उत्पादकता को बढ़ाने के लिए आवश्यक हैं। किसानों को मिट्टी की जांच कराने और मिट्टी की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार ही पोषक तत्वों का प्रयोग करने के लिए शिक्षित करना भी महत्वपूर्ण है।
मिट्टी केवल किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए एक अमूल्य संसाधन है। यह हमारे भोजन, पानी और हवा की गुणवत्ता को सीधे प्रभावित करती है। इसकी रक्षा करना और इसका सतत प्रबंधन सुनिश्चित करना हमारी साझा जिम्मेदारी है। आज जब हम मिट्टी के विभिन्न प्रकारों और उनके महत्व को समझते हैं, तो यह सोचना महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या हम अपनी कृषि पद्धतियों के माध्यम से मिट्टी के प्राकृतिक संतुलन को बनाए रख पा रहे हैं या अनजाने में उसे और कमजोर कर रहे हैं?