Answer: जूट
जूट, जिसे अक्सर "सुनहरा रेशा" कहा जाता है, भारत की एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है। यह नाम इसे इसकी चमकदार, सुनहरी भूरी चमक और आर्थिक मूल्य के कारण मिला है। यह एक प्राकृतिक वनस्पति रेशा है जिसका उपयोग सदियों से विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता रहा है। भारत, बांग्लादेश के बाद दुनिया में जूट का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और वैश्विक स्तर पर जूट उत्पादों का एक प्रमुख निर्यातक भी है। भारत की अर्थव्यवस्था में जूट का एक विशेष स्थान है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ यह लाखों किसानों और श्रमिकों को आजीविका प्रदान करता है।
जूट का वानस्पतिक नाम 'कॉरकोरस कैप्सुलारिस' (Corchorus capsularis) और 'कॉरकोरस ओलिटोरियस' (Corchorus olitorius) है। यह मालवेसी (Malvaceae) परिवार से संबंधित है, जिसमें कपास और भिंडी जैसे अन्य पौधे भी शामिल हैं। जूट के पौधे उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में पनपते हैं। माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति भारत और अफ्रीका में हुई है, जहाँ इसका उपयोग प्राचीन काल से वस्त्र और रस्सी बनाने के लिए किया जाता रहा है। यह एक लंबा, पतला पौधा होता है जो 10 से 12 फीट तक बढ़ सकता है और इसकी पत्तियों का उपयोग कुछ संस्कृतियों में सब्जियों के रूप में भी किया जाता है।
जूट की खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु आदर्श होती है। इसे अच्छी बारिश की आवश्यकता होती है, विशेष रूप से बुवाई के मौसम के दौरान, और मानसून की अवधि इसके विकास के लिए महत्वपूर्ण होती है। लगभग 25°C से 35°C का तापमान और 80% से 90% की सापेक्ष आर्द्रता इसकी वृद्धि के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। जूट को उपजाऊ, अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है, जिसमें रेत और चिकनी मिट्टी का मिश्रण हो। गंगा और ब्रह्मपुत्र के डेल्टा क्षेत्र, जो समृद्ध जलोढ़ मिट्टी से भरे हैं, जूट की खेती के लिए विशेष रूप से अनुकूल हैं। इन क्षेत्रों में वार्षिक बाढ़ मिट्टी को पोषक तत्वों से फिर से भर देती है, जिससे जूट के उत्पादन के लिए आदर्श परिस्थितियाँ बनती हैं।
जूट की खेती एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है। बुवाई आमतौर पर मार्च से मई के महीनों में की जाती है, जब मिट्टी में पर्याप्त नमी होती है। बीज सीधे खेत में बोए जाते हैं। पौधे लगभग 4 से 5 महीने में परिपक्व हो जाते हैं और कटाई के लिए तैयार होते हैं। कटाई तब की जाती है जब पौधे फूलना शुरू करते हैं, लेकिन बीज पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं। इस चरण में फाइबर की गुणवत्ता सबसे अच्छी होती है। कटाई के बाद, पौधों को बंडल में बांधा जाता है और 'रेटिंग' नामक प्रक्रिया के लिए तैयार किया जाता है।
रेटिंग जूट उत्पादन का एक महत्वपूर्ण चरण है। इस प्रक्रिया में, जूट के पौधों के बंडलों को पानी में डुबोया जाता है, आमतौर पर शांत, धीमी गति से बहने वाले पानी में, जैसे तालाब, झीलें या धीमी नदियाँ। यह प्रक्रिया 10 से 30 दिनों तक चल सकती है, जो तापमान और पानी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। रेटिंग के दौरान, सूक्ष्मजीवों की क्रिया से पौधों के तने में मौजूद पेक्टिन और गोंद जैसे पदार्थ घुल जाते हैं। ये पदार्थ रेशों को तने से बांधे रखते हैं। जब ये पदार्थ विघटित हो जाते हैं, तो रेशों को आसानी से अलग किया जा सकता है। यह प्रक्रिया जूट के रेशों को उनकी विशिष्ट चमक और कोमलता भी प्रदान करती है।
रेटिंग पूरी होने के बाद, रेशों को तनों से मैन्युअल रूप से 'स्ट्रिपिंग' (छिलाई) द्वारा अलग किया जाता है। यह एक कुशल श्रम-गहन कार्य है जिसमें श्रमिकों को पानी में खड़े होकर रेशों को सावधानीपूर्वक खींचना होता है। अलग किए गए रेशों को फिर साफ पानी में धोया जाता है ताकि कोई भी शेष अशुद्धियाँ निकल जाएं और उन्हें चमकदार बनाया जा सके। धुले हुए रेशों को धूप में सुखाया जाता है। सूखे जूट के रेशे मजबूत, टिकाऊ और बायोडिग्रेडेबल होते हैं। उनमें उच्च तन्यता शक्ति (tensile strength) होती है, जो उन्हें विभिन्न प्रकार के वस्त्रों और औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए उपयुक्त बनाती है। इसके अलावा, जूट के रेशे हल्के, सांस लेने योग्य और नमी को अवशोषित करने वाले होते हैं।
जूट के रेशों का उपयोग विविध उत्पादों के निर्माण में होता है। सबसे पारंपरिक उपयोग पैकेजिंग सामग्री के रूप में है, जैसे बोरे, बारदाना (hessian cloths) और शॉपिंग बैग। खाद्य अनाज, चीनी और कॉफी जैसे उत्पादों की पैकेजिंग के लिए जूट के बोरे व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं। वस्त्र उद्योग में, जूट का उपयोग कालीन, गलीचे, पर्दे, असबाब और अन्य घरेलू वस्त्र बनाने के लिए किया जाता है। औद्योगिक अनुप्रयोगों में, जूट का उपयोग भू-वस्त्र (geotextiles), कंपोजिट सामग्री, रस्सी, सूत और यहां तक कि कागज के उत्पादन में भी किया जाता है। भू-वस्त्र का उपयोग मृदा अपरदन नियंत्रण और सड़क निर्माण में किया जाता है, जहाँ इसकी बायोडिग्रेडेबल प्रकृति इसे एक स्थायी विकल्प बनाती है।
भारत में, जूट का उत्पादन मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और मेघालय जैसे राज्यों में केंद्रित है। इन क्षेत्रों में, जूट लाखों छोटे और सीमांत किसानों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। जूट उद्योग न केवल किसानों को बल्कि जूट मिलों और प्रसंस्करण इकाइयों में कार्यरत हजारों श्रमिकों को भी रोजगार प्रदान करता है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिससे स्थानीय समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार होता है। जूट उत्पादों का निर्यात भारत के विदेशी मुद्रा आय में भी योगदान देता है।
जूट उद्योग को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी चुनौती सिंथेटिक रेशों, विशेष रूप से पॉलीप्रोपाइलीन (polypropylene) से कड़ी प्रतिस्पर्धा है। सिंथेटिक बैग अक्सर सस्ते होते हैं और अधिक टिकाऊपन का वादा करते हैं, जिससे जूट उत्पादों की मांग प्रभावित होती है। इसके अलावा, जूट मिलों में पुरानी और अप्रचलित मशीनरी का उपयोग उत्पादकता और गुणवत्ता को कम करता है। किसानों को जूट के उचित मूल्य न मिलने, कीमतों में उतार-चढ़ाव और बिचौलियों के शोषण जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। श्रम-गहन प्रक्रिया होने के कारण, बढ़ती श्रम लागत भी उद्योग के लिए एक चुनौती है।
भारत सरकार ने जूट उद्योग को पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं। 'जूट पैकेजिंग सामग्री अधिनियम' (Jute Packaging Material Act) के तहत कुछ उत्पादों की पैकेजिंग में जूट के अनिवार्य उपयोग को बढ़ावा दिया गया है। 'राष्ट्रीय जूट बोर्ड' (National Jute Board) अनुसंधान और विकास, आधुनिकीकरण और जूट उत्पादों के विविधीकरण को बढ़ावा देने के लिए काम करता है। 'जूट मार्क इंडिया' (Jute Mark India) जैसे पहल उपभोक्ता को गुणवत्ता वाले जूट उत्पादों की पहचान करने में मदद करते हैं। नई प्रौद्योगिकियों और बेहतर किस्मों के विकास के लिए कृषि अनुसंधान संस्थानों में काम चल रहा है ताकि उत्पादन लागत कम की जा सके और फाइबर की गुणवत्ता बढ़ाई जा सके।
भविष्य में जूट उद्योग की सफलता उसके उत्पादों के विविधीकरण और आधुनिकीकरण पर निर्भर करती है। पारंपरिक बोरे और बैग के अलावा, डिजाइनर जूट बैग, जूट फैशनेबल वस्त्र, जूट कालीन, हस्तशिल्प और सजावटी वस्तुएँ लोकप्रिय हो रही हैं। ऑटोमोबाइल उद्योग में कंपोजिट सामग्री के रूप में जूट के बढ़ते उपयोग की भी संभावना है। जूट के पर्यावरणीय लाभों को उजागर करना भी महत्वपूर्ण है। यह एक पूरी तरह से बायोडिग्रेडेबल और नवीकरणीय संसाधन है जो मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करता है। प्लास्टिक के हानिकारक प्रभावों के प्रति बढ़ती वैश्विक जागरूकता के साथ, जूट जैसे प्राकृतिक रेशों के लिए एक उज्जवल भविष्य की उम्मीद है।
जूट भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत का एक अभिन्न अंग है। 'सुनहरा रेशा' सिर्फ एक उपनाम नहीं, बल्कि इस फसल के मूल्य और संभावनाओं का प्रतीक है। सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में, जूट जैसे प्राकृतिक और पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्या हम जूट की पूरी क्षमता का उपयोग करके इसे वास्तव में एक वैश्विक हरित विकल्प बना पाएंगे?