भारत में 'रुपया' शब्द का प्रयोग किस शासक के शासनकाल में पहली बार एक मानकीकृत चांदी के सिक्के के लिए किया गया था?

भारत में 'रुपया' शब्द का प्रयोग किस शासक के शासनकाल में पहली बार एक मानकीकृत चांदी के सिक्के के लिए किया गया था?

Answer: शेरशाह सूरी

भारतीय मुद्रा का इतिहास सभ्यता जितना ही पुराना और विविध है। यह केवल विनिमय का माध्यम नहीं रहा है, बल्कि यह समय के साथ भारत की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान का एक जीवित दस्तावेज भी रहा है। लगभग 2500 वर्षों से अधिक के अपने अस्तित्व में, भारतीय मुद्रा ने पत्थरों, कौड़ियों और वस्तुओं से लेकर पंच-मार्क सिक्कों, सोने, चांदी और तांबे के सिक्कों, और आधुनिक बैंकनोटों तथा अब डिजिटल मुद्रा तक एक लंबी यात्रा तय की है। यह यात्रा न केवल शासकों के परिवर्तन को दर्शाती है, बल्कि व्यापार मार्गों, तकनीकी प्रगति और समाज की बदलती जरूरतों को भी प्रस्तुत करती है। भारत की भौगोलिक विविधता और समृद्ध इतिहास ने यहाँ की मुद्रा प्रणाली को असाधारण रूप से जटिल और बहुआयामी बना दिया है, जिसमें प्रत्येक युग की अपनी विशिष्ट छाप है।

भारत में सिक्कों के सबसे शुरुआती साक्ष्य छठी शताब्दी ईसा पूर्व के महाजनपद काल से मिलते हैं। ये सिक्के, जिन्हें 'पंच-मार्क सिक्के' (आहत मुद्रा) कहा जाता है, आमतौर पर चांदी के होते थे और इन पर विभिन्न प्रतीकों जैसे सूरज, जानवर, पेड़, पहाड़ियां और ज्यामितीय पैटर्न को मोहर लगाकर बनाया जाता था। इन सिक्कों को बनाने की प्रक्रिया भी काफी अद्वितीय थी; धातु के टुकड़ों को काटकर उन्हें वांछित वजन तक पहुंचाया जाता था और फिर उन पर विभिन्न औजारों से निशान बनाए जाते थे। ये सिक्के एक मानकीकृत आकार या वजन के नहीं थे, लेकिन इन्होंने एक प्रारंभिक मुद्रा प्रणाली की नींव रखी, जिसने अंतर-क्षेत्रीय व्यापार को सुगम बनाया। मौर्य साम्राज्य के दौरान, कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मुद्रा के महत्व और इसके विनियमन का विस्तृत उल्लेख मिलता है, जिसमें 'रूपा' (चांदी), 'सुवर्ण' (सोना) और 'ताम्ररूपा' (तांबा) जैसी मुद्राओं का जिक्र है। अर्थशास्त्र में टकसाल संचालन, सिक्कों की शुद्धता और सिक्कों को जारी करने वाले अधिकारियों के बारे में भी व्यापक विवरण मिलता है, जो उस समय के परिष्कृत आर्थिक प्रबंधन को दर्शाता है।

इंडो-ग्रीक शासकों के आगमन के साथ भारतीय सिक्कों में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। उन्होंने सिक्के पर राजाओं के यथार्थवादी चित्र और यूनानी तथा खरोष्ठी लिपियों में द्विभाषी शिलालेखों की शुरुआत की, जिसने कलात्मकता और जानकारी दोनों को बढ़ावा दिया। कुषाण और सातवाहन जैसे राजवंशों ने भी अपने स्वयं के विशिष्ट सिक्के जारी किए, जिनमें देवताओं, शासकों और धार्मिक प्रतीकों के चित्र उकेरे गए थे, जो उनके सांस्कृतिक और धार्मिक झुकावों को दर्शाते थे। गुप्त काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' माना जाता है, और यह सिक्कों के मामले में भी सच था। गुप्त शासकों ने बड़ी संख्या में सोने के सिक्के (दीनार) जारी किए, जो अपनी कलात्मकता, सौंदर्य और सोने की शुद्धता के लिए प्रसिद्ध हैं। इन सिक्कों पर देवताओं जैसे लक्ष्मी, गंगा, राजाओं की शिकार करते हुए या संगीत वाद्ययंत्र बजाते हुए (जैसे समुद्रगुप्त वीणा बजाते हुए) छवियां उकेरी जाती थीं, जो तत्कालीन कला, संस्कृति, धर्म और राजशाही की समृद्धि की उत्कृष्टता को दर्शाती थीं। ये सिक्के न केवल व्यापार के माध्यम थे, बल्कि शाही प्रचार और कलात्मक अभिव्यक्ति के साधन भी थे।

मध्यकालीन भारत में, विभिन्न क्षेत्रीय राजवंशों ने अपने-अपने सिक्के जारी किए, लेकिन दिल्ली सल्तनत के आगमन के साथ मुद्रा प्रणाली में और मानकीकरण हुआ। इल्तुतमिश ने 'टंका' (चांदी का सिक्का) और 'जीतल' (तांबे का सिक्का) जैसे सिक्के पेश किए, जो बाद के शासकों के लिए मानक बन गए और सल्तनत की अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार बने। मुहम्मद बिन तुगलक ने टोकन मुद्रा का एक साहसिक लेकिन असफल प्रयोग भी किया, जिसमें उन्होंने तांबे के सिक्कों को चांदी के सिक्कों के बराबर मूल्य दिया, लेकिन जालसाजी और जनता के अविश्वास के कारण यह योजना विफल रही। इन सिक्कों पर अरबी और फ़ारसी शिलालेखों का प्रयोग किया जाता था, जो इस्लामी प्रभाव को दर्शाता है और तत्कालीन मुस्लिम शासकों की सांस्कृतिक पहचान को प्रदर्शित करता है। सिक्कों पर खलीफ़ा के नाम और इस्लामी कैलेंडर की तारीखें भी अंकित होती थीं।

भारतीय मुद्रा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 16वीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने 'रुपया' नामक एक मानकीकृत चांदी का सिक्का जारी किया। यह रुपया 178 ग्रेन (लगभग 11.53 ग्राम) का था और यह उस समय की सबसे विश्वसनीय मुद्राओं में से एक बन गया, जिसकी शुद्धता और वजन को सुनिश्चित किया गया था। 'रुपया' शब्द आज भी भारतीय मुद्रा के लिए प्रयोग किया जाता है, जो शेरशाह सूरी के इस दूरदर्शी योगदान की स्थायी विरासत को दर्शाता है। मुगल साम्राज्य ने इस प्रणाली को अपनाया और उसे और विकसित किया, जिसमें सोने का 'मोहर' और तांबे का 'दाम' भी शामिल था। मुगल सिक्के अपनी शुद्धता और मानकीकरण के लिए जाने जाते थे और उनकी टकसालों का नेटवर्क पूरे साम्राज्य में फैला हुआ था, जो उनके विशाल और सुदृढ़ आर्थिक ढांचे का प्रमाण था। अकबर और औरंगजेब जैसे शासकों ने बड़ी संख्या में सिक्के जारी किए, जिन पर उनके नाम, उपाधियाँ और टकसाल के स्थान अंकित होते थे, जो शाही सत्ता और स्थिरता के प्रतीक थे।

यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के आगमन के साथ, भारत में कई मुद्राओं का प्रचलन शुरू हो गया, जिससे वित्तीय लेनदेन जटिल हो गए। पुर्तगाली (जैसे गोवा में ज़ेराफिन), डच, फ्रेंच और ब्रिटिश सभी ने अपने-अपने सिक्के जारी किए, जिससे देश में एक बहु-मुद्रा प्रणाली विकसित हुई। हालांकि, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे पूरे उपमहाद्वीप पर अपनी राजनीतिक और आर्थिक पकड़ मजबूत कर ली और एक एकीकृत मुद्रा प्रणाली की आवश्यकता महसूस की। उन्होंने बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास प्रेसीडेंसी में टकसालें स्थापित कीं और अपने स्वयं के सिक्के ढाले, अक्सर स्थानीय मुगल पैटर्न की नकल करते हुए, लेकिन धीरे-धीरे अपनी पहचान स्थापित करते हुए। 1835 का सिक्का अधिनियम ब्रिटिश भारत में मुद्रा के मानकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस अधिनियम ने पूरे ब्रिटिश भारत के लिए एक समान मुद्रा, रुपया, की शुरुआत की, जिस पर ब्रिटिश सम्राट की छवि होती थी, जैसे महारानी विक्टोरिया और बाद में किंग जॉर्ज। यह रुपया 16 आने और 64 पैसे में विभाजित था, जिससे पूरे देश में एक सुसंगत आर्थिक प्रणाली स्थापित हुई। ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का औपनिवेशीकरण हुआ, और रुपये को स्टर्लिंग पाउंड से जोड़ा गया, जिससे वैश्विक व्यापार में भारत की स्थिति प्रभावित हुई।

भारत की स्वतंत्रता के बाद, भारतीय मुद्रा में एक नया अध्याय शुरू हुआ। 1950 में, भारत सरकार ने अपने पहले सिक्के जारी किए, जिन पर ब्रिटिश सम्राट की छवि को अशोक स्तंभ और धान की बालियों जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों से बदल दिया गया। इन सिक्कों ने एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत की नई पहचान को प्रतिबिंबित किया। 1957 में, भारत ने दशमलव प्रणाली को अपनाया, जिसमें एक रुपये को 100 'नया पैसा' में विभाजित किया गया, जिसे बाद में केवल 'पैसा' कहा गया। इस बदलाव ने गणना को सरल बनाया और आधुनिक वित्तीय प्रणालियों के साथ भारत को जोड़ा, जिससे लेखांकन और वाणिज्यिक लेनदेन अधिक कुशल हो गए। यह परिवर्तन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणालियों के साथ तालमेल बिठाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

पिछले कुछ दशकों में, भारतीय रिजर्व बैंक ने महात्मा गांधी श्रृंखला के बैंकनोट जारी किए हैं, जिनमें विभिन्न मूल्यवर्ग के 5, 10, 20, 50, 100, 200, 500 और 2000 रुपये के नोट शामिल हैं। इन नोटों में उन्नत सुरक्षा विशेषताएं जैसे वॉटरमार्क, सुरक्षा धागे, ऑप्टिकली वेरिएबल इंक और माइक्रोप्रिंट शामिल की गई हैं ताकि जालसाजी को रोका जा सके और जनता का विश्वास बनाए रखा जा सके। सिक्कों का भी समय-समय पर नवीनीकरण किया गया है, और नए मूल्यवर्ग के सिक्के जैसे 10 और 20 रुपये के सिक्के प्रचलन में लाए गए हैं, जिनमें विभिन्न विषयों और संदेशों को दर्शाया गया है। वर्तमान में, भारत डिजिटल भुगतान और क्रिप्टोकरेंसी की ओर भी तेजी से बढ़ रहा है, जो मुद्रा के पारंपरिक स्वरूपों को चुनौती दे रहा है और भविष्य में लेनदेन के तरीकों को क्रांतिकारी रूप दे रहा है। यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) जैसे प्लेटफॉर्म ने भारत में डिजिटल लेनदेन में भारी वृद्धि की है, जिससे देश एक कैशलेस समाज की ओर अग्रसर हो रहा है। भारतीय मुद्रा का यह सतत विकास इस बात का प्रमाण है कि यह केवल एक आर्थिक उपकरण नहीं, बल्कि राष्ट्र की बदलती आकांक्षाओं, तकनीकी प्रगति और वैश्विक परिदृश्य का एक गतिशील प्रतिबिंब है। भविष्य में भारत की मुद्रा प्रणाली किन नए परिवर्तनों का सामना कर सकती है और इन परिवर्तनों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा?


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