Answer: चोल राजवंश
भारत का इतिहास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है, जो विभिन्न साम्राज्यों और राजवंशों के उत्थान और पतन का साक्षी रहा है। इन राजवंशों ने न केवल राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से देश को आकार दिया, बल्कि कला, साहित्य, वास्तुकला और सैन्य शक्ति के क्षेत्र में भी अमिट छाप छोड़ी। प्राचीन भारत के कई राजवंशों ने अपनी विशिष्टताओं के कारण इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। इनमें से कुछ राजवंश अपनी सैन्य विजयों के लिए जाने जाते हैं, तो कुछ अपनी कलात्मक उपलब्धियों के लिए, और कुछ अपनी प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए। हालांकि, कुछ राजवंश ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने अपनी नौसैनिक शक्ति और समुद्री विस्तार के माध्यम से विशेष ख्याति प्राप्त की। ऐसा ही एक प्रमुख राजवंश था 'चोल राजवंश'।
चोल राजवंश, जो दक्षिण भारत में स्थित था, लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 13वीं शताब्दी ईस्वी तक एक शक्तिशाली और प्रभावशाली साम्राज्य के रूप में विद्यमान रहा। हालांकि, इसके इतिहास के प्रारंभिक काल के बारे में पुरातात्विक साक्ष्य कम हैं, लेकिन संगम साहित्य में चोल शासकों का उल्लेख मिलता है, जो उनके प्राचीन उद्गम की ओर इशारा करता है। चोलों का वास्तविक उत्थान और शक्ति का चरम नवीं शताब्दी ईस्वी में हुआ, जब विजयालय ने तंजावुर पर विजय प्राप्त की और चोल साम्राज्य की नींव को मजबूत किया। इसके बाद, आदित्य प्रथम, परंतक प्रथम, राजराज प्रथम और राजेंद्र प्रथम जैसे महान शासकों ने चोल साम्राज्य को शिखर पर पहुंचाया।
चोल राजवंश की सबसे उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक उनकी सुसंगठित और शक्तिशाली नौसेना थी। उस समय के अधिकांश भारतीय राजवंश या तो स्थलीय शक्ति पर अधिक ध्यान केंद्रित करते थे या अपनी नौसेना को अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर रखते थे। लेकिन चोल शासकों ने समुद्री शक्ति के महत्व को समझा और एक ऐसी नौसेना का निर्माण किया जो न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के तटों की रक्षा कर सके, बल्कि उससे कहीं आगे जाकर समुद्री व्यापार मार्गों को नियंत्रित कर सके और दूर देशों में अपना प्रभाव स्थापित कर सके। यह नौसेना उस काल की सबसे उन्नत नौसैनिक शक्तियों में से एक थी।
राजराज प्रथम (शासनकाल 985-1014 ईस्वी) को अक्सर चोल नौसेना के पुनर्गठन और विस्तार का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने एक मजबूत नौसेना तैयार की, जो व्यापारिक जहाजों के काफिलों की सुरक्षा करने के साथ-साथ सैन्य अभियानों में भी सक्षम थी। इस नौसेना का उपयोग उन्होंने मालदीव द्वीपसमूह पर विजय प्राप्त करने और भारत के पश्चिमी तट पर स्थित चालुक्यों के विरुद्ध अभियान चलाने के लिए किया। राजराज प्रथम ने अपनी नौसेना के बल पर श्रीलंका के उत्तरी भाग पर भी विजय प्राप्त की, जिससे चोलों का प्रभाव और विस्तार और बढ़ा।
राजराज प्रथम के पुत्र, राजेंद्र प्रथम (शासनकाल 1014-1044 ईस्वी), चोल शक्ति और नौसैनिक महत्वाकांक्षाओं के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने पिता की नौसैनिक नीतियों को न केवल जारी रखा, बल्कि उन्हें एक अभूतपूर्व स्तर तक ले गए। उन्होंने एक विशाल और शक्तिशाली नौसेना का निर्माण किया, जिसे 'गजों की सेना' (हाथियों की सेना) के रूप में भी जाना जाता था, क्योंकि इसमें युद्ध के मैदान में हाथियों का भी प्रयोग होता था, लेकिन यह नौसैनिक अभियानों के लिए थी। इस नौसेना का सबसे साहसिक और दूरगामी अभियान 'गंगईकोंडचोलपुरम' का अभियान था।
राजेंद्र प्रथम ने अपनी नौसेना के साथ गंगा नदी तक एक सफल अभियान का नेतृत्व किया। इस अभियान का उद्देश्य उत्तरी भारत के शासकों को चोल साम्राज्य की श्रेष्ठता का अनुभव कराना था। यह अभियान न केवल एक स्थलीय विजय थी, बल्कि इसने चोल नौसेना की भारतीय प्रायद्वीप के भीतर और उसके बाहर नदियों तथा समुद्र में संचालन की क्षमता का प्रदर्शन भी किया। इस अभियान की सफलता को चिह्नित करने के लिए, राजेंद्र प्रथम ने 'गंगईकोंडचोलपुरम' (गंगा के विजेता) की उपाधि धारण की और इस नाम का एक नया शहर भी बसाया, जो चोल साम्राज्य की राजधानी बनी।
चोलों की नौसैनिक शक्ति का प्रभाव केवल सैन्य विजयों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसने समुद्री व्यापार को भी अत्यधिक बढ़ावा दिया। चोल व्यापारी दक्षिण पूर्व एशिया के राज्यों, जैसे श्रीविजय (आधुनिक इंडोनेशिया और मलेशिया), कंबोज (कंबोडिया) और चंपा (वियतनाम) के साथ व्यापार करते थे। चोल नौसेना ने इन व्यापार मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चित की, जिससे व्यापार फलता-फूलता रहा। इससे चोल साम्राज्य को आर्थिक समृद्धि मिली और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी बढ़ावा मिला। चोल शासकों ने अपनी नौसैनिक श्रेष्ठता का उपयोग करके इन देशों में मंदिर भी बनवाए और अपने सांस्कृतिक प्रभाव को बढ़ाया।
चोलों की नौसेना सिर्फ युद्धपोतों का एक संग्रह मात्र नहीं थी, बल्कि यह एक सुसंगठित ढांचा थी जिसमें नाविकों, अभियंताओं और जहाजों के निर्माण की विशेषज्ञता शामिल थी। उनके जहाज विभिन्न आकारों के होते थे, जिनमें तेज गति वाले छोटे जहाजों से लेकर बड़े मालवाहक जहाज और युद्धपोत शामिल थे। इन जहाजों का निर्माण उस समय की उन्नत जहाज निर्माण तकनीकों का प्रयोग करके किया जाता था, जो उन्हें लंबी समुद्री यात्राओं के लिए उपयुक्त बनाते थे। चोलों के पास नौसेना के रखरखाव और विकास के लिए एक समर्पित मंत्रालय भी था।
चोलों के नौसैनिक अभियान और समुद्री विस्तार ने भारतीय सभ्यता के प्रभाव को दक्षिण पूर्व एशिया तक फैलाया। चोल वास्तुकला, कला, भाषा और धर्म का प्रभाव इन क्षेत्रों में आज भी देखा जा सकता है। यह चोल राजवंश की दूरदर्शिता और सैन्य तथा कूटनीतिक कौशल का प्रमाण है कि उन्होंने अपनी नौसैनिक शक्ति का उपयोग करके न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि एक ऐसे सांस्कृतिक प्रभाव का निर्माण किया जो सदियों तक कायम रहा। चोलों ने सिद्ध किया कि एक राष्ट्र की शक्ति केवल उसकी सेना या अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उसकी समुद्री क्षमताएं भी उसके वैश्विक प्रभाव को निर्धारित करती हैं।
अन्य राजवंशों ने भी नौसेना पर ध्यान दिया, जैसे सातवाहन, वाकाटक और पल्लव, लेकिन चोलों की नौसैनिक शक्ति की व्यापकता, दूरगामी अभियान और पूर्वी एशिया तक प्रभाव स्थापित करने की क्षमता अतुलनीय थी। उनकी नौसैनिक रणनीतियों और उपलब्धियों का अध्ययन आज भी सैन्य इतिहासकारों और रणनीतिकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। चोलों ने दिखाया कि कैसे एक दक्षिणीय साम्राज्य अपनी समुद्री ताकत के बल पर एक महान वैश्विक शक्ति बन सकता है। क्या यह नौसैनिक शक्ति ही चोलों के विस्तृत सांस्कृतिक प्रभाव का एकमात्र कारण थी, या इसके पीछे अन्य सामाजिक और आर्थिक कारक भी थे?