Answer: भारत में 'हरित क्रांति' के दौरान यूरिया उर्वरक का सबसे अधिक उपयोग किया गया था।
भारत में हरित क्रांति, 1960 के दशक के उत्तरार्ध से शुरू हुई एक कृषि क्रांति थी, जिसने देश के खाद्य उत्पादन में नाटकीय वृद्धि की। इस क्रांति का मुख्य उद्देश्य बढ़ती जनसंख्या की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना था। इस दौरान अनेक तकनीकी बदलावों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनमें से एक था रासायनिक उर्वरकों का व्यापक उपयोग।
हरित क्रांति की सफलता का एक प्रमुख कारक उच्च उपज देने वाली फसलों (HYV) का विकास था। ये फसलें पारंपरिक किस्मों की तुलना में अधिक उत्पादक थीं, लेकिन इन्हें उर्वरकों और सिंचाई की अधिक आवश्यकता थी। इसलिए, उर्वरकों की आपूर्ति और उनके उपयोग में वृद्धि करना आवश्यक हो गया।
यूरिया, एक नाइट्रोजन युक्त उर्वरक, हरित क्रांति के दौरान सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उर्वरक था। नाइट्रोजन, पौधों के विकास के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है, और यूरिया इसकी कुशल आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत था। इसकी उच्च नाइट्रोजन सामग्री और आसानी से उपलब्धता ने इसे किसानों के लिए एक आकर्षक विकल्प बना दिया।
हालांकि यूरिया का उपयोग फसल उत्पादन में वृद्धि करने में सहायक था, लेकिन इसके अत्यधिक उपयोग के कुछ नकारात्मक परिणाम भी हुए हैं। अत्यधिक यूरिया के उपयोग से मिट्टी में नाइट्रोजन का संचय हो सकता है, जिससे मिट्टी का क्षरण और जल प्रदूषण हो सकता है। इसके अलावा, यूरिया का अत्यधिक उपयोग फसलों के पोषक तत्वों के संतुलन को भी प्रभावित कर सकता है।
हरित क्रांति के बाद से, भारत में उर्वरक उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि, उर्वरक उपयोग की इस वृद्धि के साथ ही कुछ पर्यावरणीय चुनौतियां भी सामने आई हैं। जल प्रदूषण, मिट्टी का क्षरण, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कुछ प्रमुख समस्याएं हैं जिनका समाधान करने की आवश्यकता है।
इसलिए, स्थायी कृषि प्रथाओं को अपनाने और उर्वरक उपयोग में संतुलन बनाए रखने के लिए नई रणनीतियों और तकनीकों की आवश्यकता है। यह जरूरी है कि हम ऐसे तरीके अपनाएं जो फसल उत्पादन को बढ़ावा दें, लेकिन साथ ही पर्यावरण के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें। उर्वरक प्रबंधन में सुधार, जैविक खेती को बढ़ावा देना, और पानी के कुशल उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना कुछ महत्वपूर्ण कदम हैं।
हरित क्रांति ने भारत के कृषि क्षेत्र में क्रांति ला दी, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर गंभीर चिंतन आवश्यक है। अब सवाल उठता है कि क्या हम एक ऐसे कृषि मॉडल की ओर बढ़ सकते हैं जो उच्च उपज के साथ-साथ पर्यावरणीय स्थिरता को भी सुनिश्चित करे? क्या हम एक ऐसे भविष्य की कल्पना कर सकते हैं जहाँ तकनीकी प्रगति और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ चलें?