Answer: 65 वर्ष
भारत का सर्वोच्च न्यायालय देश की न्यायपालिका का शिखर है, और इसके शीर्ष पर विराजमान होते हैं भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI)। यह पद न केवल कानूनी विद्वत्ता और अनुभव का प्रतीक है, बल्कि देश के संवैधानिक मूल्यों और न्याय प्रणाली के संरक्षक की भूमिका भी निभाता है। मुख्य न्यायाधीश का पद भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से एक - न्यायपालिका - के स्वतंत्र और निष्पक्ष कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी भूमिका केवल अदालती कार्यवाही तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे न्यायपालिका के प्रशासनिक प्रमुख, संवैधानिक व्याख्याकार और नागरिक अधिकारों के रक्षक के रूप में भी कार्य करते हैं। यह पद धारण करने वाला व्यक्ति पूरे राष्ट्र के विश्वास और अपेक्षाओं का केंद्र होता है, और उनका प्रत्येक निर्णय देश की विधि व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने पर गहरा प्रभाव डालता है।
भारतीय संविधान का भाग V (संघ) अध्याय IV (संघ की न्यायपालिका) सर्वोच्च न्यायालय और उसके न्यायाधीशों से संबंधित है। विशेष रूप से, अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय के गठन, स्वतंत्रता, अधिकार क्षेत्र, शक्तियों और प्रक्रियाओं का विस्तृत विवरण प्रदान करते हैं। इन्हीं अनुच्छेदों के तहत मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति, योग्यता, कार्यकाल, हटाने की प्रक्रिया और वेतन-भत्तों का निर्धारण किया जाता है। संविधान ने न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से अलग और स्वतंत्र रखने का स्पष्ट प्रावधान किया है, ताकि वह बिना किसी दबाव या भय के न्याय प्रदान कर सके। मुख्य न्यायाधीश इस संवैधानिक ढांचे की रीढ़ होते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि संविधान की सर्वोच्चता बनी रहे और उसके प्रावधानों का सही ढंग से पालन हो।
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। हालांकि, यह नियुक्ति राष्ट्रपति के विवेकाधीन नहीं होती, बल्कि एक स्थापित प्रक्रिया और परंपरा का पालन करती है। आमतौर पर, सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की परंपरा रही है। यह परंपरा "वरिष्ठता के सिद्धांत" (seniority principle) के रूप में जानी जाती है, जिसका उद्देश्य राजनीतिक हस्तक्षेप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बचाना है। यद्यपि इस परंपरा का उल्लंघन कुछ ऐतिहासिक क्षणों में हुआ है, लेकिन इसे न्यायपालिका की अखंडता के लिए एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है। इस प्रक्रिया में राष्ट्रपति केंद्रीय कानून मंत्री से परामर्श करते हैं, और कानून मंत्री सर्वोच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेते हैं।
मुख्य न्यायाधीश और अन्य सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में "कॉलेजियम प्रणाली" की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह प्रणाली, जो संविधान में सीधे वर्णित नहीं है, बल्कि न्यायिक निर्णयों (तीन न्यायाधीश मामलों) के माध्यम से विकसित हुई है, में मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं। कॉलेजियम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए सिफारिशें करता है, जिसे सरकार द्वारा अनुमोदित किया जाता है। हालांकि सरकार को सिफारिशों पर पुनर्विचार करने का अधिकार है, लेकिन यदि कॉलेजियम अपनी सिफारिश दोहराता है, तो सरकार आमतौर पर उसे मानने के लिए बाध्य होती है। इस प्रणाली का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि न्यायपालिका में नियुक्तियां योग्यता और अनुभव के आधार पर हों, न कि राजनीतिक कारणों से।
भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए, किसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने की योग्यताएं पूरी करनी होती हैं। संविधान के अनुच्छेद 124(3) के अनुसार, एक व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए निम्नलिखित योग्यताओं में से कोई एक पूरी करनी होगी:
भारत के मुख्य न्यायाधीश का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता है। वे 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक अपने पद पर बने रहते हैं। यह अधिकतम आयु सीमा है जिसके बाद वे सेवानिवृत्त हो जाते हैं। एक बार नियुक्त होने के बाद, न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा मिलती है, जिसका अर्थ है कि उन्हें केवल संविधान में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही हटाया जा सकता है। यह प्रावधान न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न्यायाधीशों को भय या पक्षपात के बिना अपने कर्तव्यों का पालन करने की अनुमति देता है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन और संवैधानिक रूप से निर्धारित है। उन्हें केवल 'सिद्ध कदाचार' (proven misbehaviour) या 'अक्षमता' (incapacity) के आधार पर ही हटाया जा सकता है। हटाने की प्रक्रिया संसद के दोनों सदनों में से किसी एक में प्रस्ताव पेश करने से शुरू होती है। लोकसभा में कम से कम 100 सदस्यों या राज्यसभा में कम से कम 50 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को संबंधित सदन के अध्यक्ष या सभापति को प्रस्तुत किया जाता है। यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, तो अध्यक्ष/सभापति आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करता है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रतिष्ठित न्यायविद् शामिल होते हैं। यदि समिति न्यायाधीश को दोषी पाती है, तो प्रस्ताव को संबंधित सदन में विचार के लिए रखा जाता है। यदि प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत और सदन की कुल सदस्यता के बहुमत से प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, जो फिर न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश जारी करते हैं। यह प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करती है और मनमानी बर्खास्तगी को रोकती है।
मुख्य न्यायाधीश की भूमिका केवल कानूनी व्याख्या और निर्णय देने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी भी होते हैं। उनके प्रशासनिक कार्यों में शामिल हैं:
मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक प्रमुख भी होते हैं। उनके न्यायिक कार्य उन्हें देश की कानूनी और संवैधानिक दिशा को प्रभावित करने का अवसर देते हैं:
भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद भारतीय लोकतंत्र की नींव है। उनकी स्वतंत्रता न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है। वे न केवल कानून के संरक्षक हैं, बल्कि संविधान के संरक्षक भी हैं। एक स्वतंत्र न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि सरकार अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करे और कानून का शासन बना रहे। मुख्य न्यायाधीश यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि न्यायपालिका राजनीतिक दबावों से अछूती रहे और सभी नागरिकों को समान न्याय मिल सके। यह पद राष्ट्र के संवैधानिक आदर्शों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
कॉलेजियम प्रणाली, हालांकि न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बनाई गई है, इसकी पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर लगातार बहस चलती रही है। आलोचकों का तर्क है कि यह प्रणाली अपारदर्शी है और इसमें भाई-भतीजावाद या पसंदीदा नियुक्तियों की संभावना बनी रहती है। सरकार और न्यायपालिका के बीच कॉलेजियम की भूमिका को लेकर कई बार गतिरोध भी देखा गया है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को लाने का प्रयास, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया था, इसी बहस का एक हिस्सा था। यह बहस न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता और चयन प्रक्रिया में जनता के विश्वास को बढ़ाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
न्यायिक सक्रियता (judicial activism) और न्यायिक संयम (judicial restraint) के बीच का संतुलन भी मुख्य न्यायाधीश के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है। जबकि न्यायिक सक्रियता ने कई सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर न्यायपालिका को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बनाया है, वहीं कुछ आलोचक इसे विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप के रूप में देखते हैं। मुख्य न्यायाधीश को यह सुनिश्चित करना होता है कि न्यायपालिका अपनी संवैधानिक सीमाओं के भीतर काम करे, लेकिन साथ ही समाज की बदलती आवश्यकताओं और न्याय की मांग के प्रति भी संवेदनशील रहे। यह एक नाजुक संतुलन है जिसे बनाए रखना आवश्यक है।
सर्वोच्च न्यायालय, विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश, मामलों के बढ़ते बोझ और लंबित मामलों (pendency) की चुनौती का भी सामना करते हैं। लाखों मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं, और यह त्वरित न्याय तक पहुंच में बाधा डालता है। मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक प्रक्रियाओं में सुधार, प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने और न्यायिक संसाधनों के कुशल प्रबंधन के लिए रणनीतियां विकसित करनी होती हैं ताकि न्याय वितरण प्रणाली को अधिक प्रभावी और समयबद्ध बनाया जा सके। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका सीधा प्रभाव आम जनता पर पड़ता है।
भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश थे न्यायमूर्ति सर हरिलाल जेकिशनदास कानिया (H.J. Kania), जिन्होंने 26 जनवरी 1950 को पदभार संभाला था, जब भारत एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बना। उनका कार्यकाल हालांकि छोटा था (नवंबर 1951 तक), लेकिन उन्होंने नवगठित सर्वोच्च न्यायालय की नींव रखने और भारतीय न्यायपालिका के लिए उच्च मानक स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने शुरुआती दिनों में संविधान की व्याख्या और न्याय के सिद्धांतों को आकार देना शुरू किया, जो आगे चलकर भारतीय कानूनी प्रणाली की दिशा तय करने में सहायक हुआ।
भारत के इतिहास में कई मुख्य न्यायाधीशों ने अपने असाधारण योगदान से न्यायपालिका को समृद्ध किया है। न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती को जनहित याचिका (PIL) के विकास में उनकी भूमिका के लिए जाना जाता है, जिसने आम नागरिकों के लिए न्याय तक पहुंच को बढ़ाया। न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला ने अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों के रूप में कार्य करने का अनूठा सम्मान प्राप्त किया। न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़, जिनके कार्यकाल में सर्वाधिक संख्या में निर्णय दिए गए, और उनके पुत्र न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़, जो वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश हैं, ने भी कई महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों पर ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं। इन न्यायधीशों ने भारतीय न्यायशास्त्र पर अमिट छाप छोड़ी है।
संक्षेप में, भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद भारतीय लोकतंत्र में अद्वितीय महत्व रखता है। यह न केवल कानूनी शक्ति का केंद्र है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों, मानवाधिकारों और कानून के शासन का संरक्षक भी है। मुख्य न्यायाधीश को न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने, न्यायपालिका के प्रशासन को कुशलता से संचालित करने और देश के जटिल कानूनी परिदृश्य में संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या करने की विशाल जिम्मेदारी निभानी होती है। उनका नेतृत्व और निर्णय देश की न्यायिक दिशा को निर्धारित करते हैं और आम नागरिकों के जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। यह पद धारण करने वाले व्यक्ति को असाधारण बुद्धिमत्ता, अखंडता और साहस की आवश्यकता होती है।
जिस प्रकार मुख्य न्यायाधीश देश की न्यायिक प्रणाली के शिखर पर हैं, उसी प्रकार क्या कॉलेजियम प्रणाली में और अधिक पारदर्शिता लाकर न्यायपालिका में जनता के विश्वास को और सुदृढ़ किया जा सकता है?