Answer: अनुच्छेद 75(1)
भारत एक संसदीय लोकतंत्र है जहाँ राष्ट्रपति राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और प्रधान मंत्री सरकार का प्रमुख होता है। यह द्वैध व्यवस्था भारतीय राजव्यवस्था की आधारशिला है, जो ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से प्रेरित है लेकिन भारतीय संदर्भ के अनुरूप ढाली गई है। दोनों पद देश के शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, यद्यपि उनकी शक्तियाँ और कार्य संविधान द्वारा स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं। राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के बीच का संबंध अक्सर भारतीय राजनीति में बहस और विश्लेषण का विषय रहा है, खासकर उनकी संवैधानिक शक्तियों और व्यावहारिक अनुप्रयोग के संदर्भ में।
भारत के राष्ट्रपति का पद भारतीय गणराज्य के प्रमुख का प्रतिनिधित्व करता है। संविधान के अनुच्छेद 52 के अनुसार, भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 में कहा गया है कि संघ की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग सीधे अथवा अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रपति एक नाममात्र का प्रमुख होता है, वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ प्रधान मंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद के पास होती हैं। राष्ट्रपति राष्ट्र की एकता, अखंडता और एकजुटता का प्रतीक होता है। उन्हें देश का प्रथम नागरिक भी कहा जाता है।
राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा नहीं किया जाता है, बल्कि एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं (अनुच्छेद 54)। राष्ट्रपति का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है और वह पुनः चुनाव के लिए पात्र होता है। राष्ट्रपति की शक्तियों में कार्यकारी शक्तियाँ (जैसे नियुक्तियाँ करना), विधायी शक्तियाँ (जैसे संसद सत्र बुलाना, अध्यादेश जारी करना), वित्तीय शक्तियाँ, न्यायिक शक्तियाँ, राजनयिक शक्तियाँ, सैन्य शक्तियाँ और आपातकालीन शक्तियाँ शामिल हैं। इनमें से अधिकांश शक्तियों का प्रयोग वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर करते हैं।
प्रधान मंत्री, दूसरी ओर, भारत सरकार का वास्तविक कार्यकारी प्रमुख होता है। वह मंत्रिपरिषद का नेता होता है और देश की नीतियों और शासन को निर्देशित करता है। भारतीय संविधान प्रधान मंत्री के पद को विशेष रूप से परिभाषित नहीं करता है बल्कि इसे मंत्रिपरिषद के प्रमुख के रूप में प्रस्तुत करता है। प्रधान मंत्री का पद वेस्टमिंस्टर प्रणाली की संसदीय परंपराओं से विकसित हुआ है, जहाँ सरकार का प्रमुख उस राजनीतिक दल या गठबंधन का नेता होता है जिसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 75 प्रधान मंत्री की नियुक्ति और मंत्रिपरिषद के गठन से संबंधित है, और यह हमारे प्रश्न का मूल है। अनुच्छेद 75(1) स्पष्ट रूप से कहता है कि "प्रधान मंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधान मंत्री की सलाह पर की जाएगी।" यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को प्रधान मंत्री की नियुक्ति का अधिकार प्रदान करता है। हालांकि, यह अधिकार विवेकाधीन नहीं है जब किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में, राष्ट्रपति उस दल के नेता को प्रधान मंत्री नियुक्त करने के लिए बाध्य होता है।
यदि किसी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है (जिसे त्रिशंकु संसद या हंग पार्लियामेंट कहा जाता है), तो राष्ट्रपति की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण और विवेकाधीन हो जाती है। ऐसी स्थिति में, राष्ट्रपति आमतौर पर सबसे बड़े दल के नेता या उस गठबंधन के नेता को आमंत्रित करते हैं जो सरकार बनाने का दावा करता है और जिसे लगता है कि वह लोकसभा में बहुमत साबित कर सकता है। उन्हें एक निश्चित अवधि (आमतौर पर एक महीना) के भीतर सदन में अपना बहुमत साबित करने के लिए कहा जाता है। यह राष्ट्रपति का एक महत्वपूर्ण विवेकाधीन अधिकार है जो भारतीय राजनीति में कई बार देखा गया है।
प्रधान मंत्री के कार्य और शक्तियाँ व्यापक हैं। वह मंत्रिपरिषद का गठन करता है, विभागों का आवंटन करता है, और मंत्रियों के बीच समन्वय स्थापित करता है। वह सरकार की नीतियों का मुख्य प्रवक्ता होता है और संसद में सरकार का नेतृत्व करता है। प्रधान मंत्री राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच मुख्य कड़ी होता है। अनुच्छेद 78 प्रधान मंत्री के कर्तव्यों को निर्धारित करता है, जिसमें संघ के मामलों के प्रशासन और विधान के प्रस्तावों से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों को राष्ट्रपति को सूचित करना शामिल है।
मंत्रिपरिषद, जिसका नेतृत्व प्रधान मंत्री करते हैं, सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है (अनुच्छेद 75(3))। इसका अर्थ है कि यदि लोकसभा में सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो प्रधान मंत्री सहित पूरी मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना पड़ता है। यह संसदीय लोकतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत है जो सरकार को जनता के प्रतिनिधियों के प्रति जवाबदेह रखता है। प्रधान मंत्री, मंत्रियों के बीच एक "पहले के बराबर" (primus inter pares) होता है, लेकिन व्यवहार में उसकी स्थिति काफी प्रभावशाली होती है और वह मंत्रिपरिषद के निर्णयों को काफी हद तक प्रभावित करता है।
राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के बीच का संबंध "सलाह और सहायता" के सिद्धांत पर आधारित है। अनुच्छेद 74(1) में कहा गया है कि "राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका मुखिया प्रधान मंत्री होगा।" 42वें और 44वें संविधान संशोधनों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य है। हालाँकि, 44वें संशोधन ने राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया कि वह मंत्रिपरिषद को किसी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह को राष्ट्रपति को मानना ही होगा।
इस प्रकार, भारतीय राजव्यवस्था में, राष्ट्रपति की भूमिका मुख्य रूप से औपचारिक और प्रतीकात्मक है, जबकि प्रधान मंत्री वास्तविक कार्यकारी अधिकार रखता है। यह एक संतुलनकारी कार्य है जहाँ राष्ट्रपति संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है और प्रधान मंत्री लोगों की इच्छा के कार्यकारी के रूप में। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि देश में लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों का पालन हो। राष्ट्रपति का पद आपातकाल जैसी असामान्य परिस्थितियों में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जहाँ वे संविधान के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हैं।
उदाहरण के लिए, जब कोई बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह होता है, तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं। इसी तरह, राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। ये असाधारण शक्तियां हैं, जिनका प्रयोग भी मंत्रिपरिषद की लिखित सलाह पर ही किया जाता है, सिवाय उन बहुत ही सीमित परिस्थितियों के जहाँ राष्ट्रपति को अपने विवेक का उपयोग करना पड़ सकता है, जैसे कि किसी दल को बहुमत न मिलने पर।
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने सोच-समझकर राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के बीच शक्तियों का यह वितरण किया। वे एक ऐसे मजबूत कार्यकारी प्रमुख से बचना चाहते थे जो तानाशाही की प्रवृत्ति रख सके, जैसा कि वे कुछ अन्य प्रणालियों में देखते थे। इसके बजाय, उन्होंने एक ऐसी प्रणाली को प्राथमिकता दी जहाँ सरकार जनता के प्रति सीधे जवाबदेह हो और जहाँ एक संवैधानिक प्रमुख हो जो संविधान की रक्षा करे और नैतिक अधिकार बनाए रखे। यह सुनिश्चित करता है कि शक्ति का दुरुपयोग न हो और लोकतांत्रिक सिद्धांत कायम रहें।
प्रधान मंत्री का पद केवल सरकार चलाने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व भी करता है। विदेश नीति के निर्धारण और क्रियान्वयन में प्रधान मंत्री की भूमिका केंद्रीय होती है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष रखने और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने में प्रधान मंत्री की सक्रिय भूमिका होती है। वे राष्ट्रीय विकास परिषद, नीति आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के अध्यक्ष भी होते हैं, जो देश की सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
प्रधान मंत्री का चुनाव भले ही सीधे तौर पर न होता हो (वे अपने संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं), लेकिन उनका पद देश की जनता के जनादेश का प्रत्यक्ष परिणाम होता है। जिस पार्टी या गठबंधन को जनता चुनती है, उसका नेता प्रधान मंत्री बनता है। इस प्रकार, प्रधान मंत्री सीधे जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं, जबकि राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होता है, जो उन्हें राजनीतिक विवादों से ऊपर उठकर संवैधानिक संरक्षक के रूप में कार्य करने में मदद करता है।
भारत के संविधान में इन दोनों महत्वपूर्ण पदों के बीच एक नाजुक संतुलन स्थापित किया गया है। जहां राष्ट्रपति राष्ट्र की एकता और संविधान की रक्षा का प्रतीक है, वहीं प्रधान मंत्री सरकार की नीतियों और विकास एजेंडा का क्रियान्वयन करता है। यह सहयोग और संवैधानिक उत्तरदायित्वों का एक अनूठा मिश्रण है जो भारतीय लोकतंत्र को मजबूत और गतिशील बनाए रखता है। क्या यह संवैधानिक संतुलन भविष्य में उभरती नई राजनीतिक वास्तविकताओं और चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त लचीला है?