Answer: अथर्ववेद
वैदिक काल, भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में लगभग 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक फैला हुआ एक महत्वपूर्ण युग है। यह वह अवधि है जब सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद एक नई सभ्यता का उदय हुआ, जिसे आर्यों द्वारा स्थापित माना जाता है। इस काल का नाम 'वेद' से लिया गया है, जो इस सभ्यता के प्राथमिक साहित्यिक स्रोत और धार्मिक ग्रंथ हैं। वैदिक साहित्य भारत की प्राचीनतम और सबसे पवित्र साहित्यिक परंपराओं में से एक का प्रतिनिधित्व करता है और हिंदू धर्म की नींव के रूप में कार्य करता है। यह काल न केवल धार्मिक और दार्शनिक विचारों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रणालियों और आर्थिक प्रथाओं के उद्भव के लिए भी जाना जाता है। वैदिक काल को मोटे तौर पर दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है: प्रारंभिक वैदिक काल (या ऋग्वैदिक काल, 1500-1000 ईसा पूर्व) और उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व), प्रत्येक अपनी विशिष्ट विशेषताओं के साथ।
वेद, जिसका शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है, श्रुति साहित्य के अंतर्गत आते हैं, जिसका अर्थ है 'सुना गया' या 'ईश्वरीय रूप से प्रकट किया गया'। ऐसा माना जाता है कि इन्हें ऋषियों द्वारा मौखिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारित किया गया, इससे पहले कि उन्हें अंततः लिखा गया। कुल मिलाकर चार वेद हैं: ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ये वेद सामूहिक रूप से वैदिक ज्ञान और अनुष्ठानों का एक विशाल कोष प्रस्तुत करते हैं, जो देवताओं के भजन से लेकर दार्शनिक अटकलों, अनुष्ठानिक सूत्रों से लेकर जादुई मंत्रों तक फैले हुए हैं। वे तत्कालीन समाज की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों के बारे में अमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। प्रत्येक वेद की अपनी-अपनी संहिता (मंत्रों का संग्रह), ब्राह्मण (अनुष्ठानों की व्याख्या), आरण्यक (वन ग्रंथ), और उपनिषद (दार्शनिक ग्रंथ) हैं, जो वैदिक साहित्य की विशालता और गहराई को दर्शाते हैं।
ऋग्वेद सबसे पुराना और सबसे महत्वपूर्ण वेद है, जिसे लगभग 1500-1200 ईसा पूर्व के बीच रचा गया माना जाता है। इसमें 10 मंडलों में विभाजित 1028 सूक्त (भजन) हैं। ये भजन इंद्र, अग्नि, वरुण और सूर्य जैसे विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति में गाए जाते हैं। ऋग्वेद प्रारंभिक आर्यों के जीवन, उनके सामाजिक संगठन, राजनीतिक संरचनाओं, धार्मिक विश्वासों और उनके प्रकृति के साथ संबंधों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। यह प्राचीन संस्कृत का एक प्रमुख स्रोत है। ऋग्वैदिक समाज मुख्य रूप से देहाती था, जिसमें पशुधन, विशेष रूप से गायें, धन का मुख्य माप थीं। इस वेद के कुछ भजन ब्रह्मांड की उत्पत्ति और दार्शनिक प्रश्नों पर भी विचार करते हैं, जैसे प्रसिद्ध 'नासदीय सूक्त'।
सामवेद, जिसका अर्थ है 'गीतों का वेद' या 'धुनों का वेद', मुख्य रूप से ऋग्वेद से लिए गए मंत्रों का एक संग्रह है, जिन्हें विशेष रूप से यज्ञों के दौरान उच्चारित किया जाना था। इसमें लगभग 1875 छंद हैं, जिनमें से अधिकांश ऋग्वेद से लिए गए हैं। सामवेद भारतीय शास्त्रीय संगीत की जड़ों को दर्शाता है, जिसमें मंत्रों को गाने के लिए निर्धारित संगीतमय स्वर और तालबद्ध संरचनाएं शामिल हैं। इसे भारतीय संगीत का जनक माना जाता है। सामवेद का मुख्य उद्देश्य सोम यज्ञों के दौरान उद्गाता (गायन करने वाले पुजारी) द्वारा गायन करना था। यह वेद केवल ग्रंथों का एक संग्रह नहीं है, बल्कि एक प्रदर्शन कला का भी प्रतीक है, जो यह बताता है कि वैदिक अनुष्ठान केवल शब्दों के पाठ से कहीं अधिक थे, बल्कि उनमें गायन और संगीत भी शामिल थे।
यजुर्वेद, जिसका अर्थ है 'यज्ञ सूत्रों का वेद', मुख्यतः गद्य मंत्रों और सूत्रों का एक संग्रह है जो विभिन्न यज्ञों और अनुष्ठानों के प्रदर्शन में प्रयुक्त होते थे। यह उन पुरोहितों के लिए एक अनुष्ठानिक मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता था जिन्हें अध्वर्यु कहा जाता था, जो यज्ञों का भौतिक निष्पादन करते थे। यजुर्वेद दो मुख्य शाखाओं में विभाजित है: कृष्ण यजुर्वेद (काला यजुर्वेद) और शुक्ल यजुर्वेद (सफेद यजुर्वेद)। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों और उनकी व्याख्याओं का मिश्रण है, जबकि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्र हैं। यह वेद वैदिक अनुष्ठानों की जटिलता और सटीकता पर प्रकाश डालता है, जो सामाजिक और धार्मिक जीवन का एक अभिन्न अंग थे। इसमें अश्वमेध और राजसूय जैसे महत्वपूर्ण यज्ञों के विस्तृत विवरण शामिल हैं, जो उस समय के राजाओं और शासकों की शक्ति और प्रतिष्ठा से जुड़े थे।
अथर्ववेद, जो चार वेदों में सबसे अंतिम है, अन्य वेदों से अपनी प्रकृति में काफी भिन्न है। जबकि ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद मुख्य रूप से यज्ञों और देवताओं की स्तुति से संबंधित हैं, अथर्ववेद का संबंध अधिक लौकिक और व्यावहारिक जीवन से है। इसमें लगभग 731 सूक्त और 6000 मंत्र हैं जो 20 कांडों में विभाजित हैं। इसका नाम अथर्वन ऋषियों के नाम पर पड़ा है, जो प्राचीन काल में जादुई उपचार और मंत्रों के विशेषज्ञ थे। अथर्ववेद में विभिन्न प्रकार के मंत्र शामिल हैं, जिनमें बीमारों को ठीक करने के लिए (आयुर्वेद की शुरुआती झलक), बुरी आत्माओं और राक्षसों को दूर भगाने के लिए, शत्रुतापूर्ण ताकतों को पराजित करने के लिए, प्रेम और धन प्राप्त करने के लिए, सांप के काटने का इलाज करने के लिए, और यहां तक कि खेती की रक्षा और लंबी आयु प्राप्त करने के लिए भी मंत्र हैं। यह वेद आम लोगों के दैनिक जीवन, उनके भय, आशाओं और विश्वासों का एक अनूठा चित्र प्रस्तुत करता है।
अथर्ववेद की अद्वितीय विशेषता यह है कि यह वैदिक काल के गैर-आर्य या लोक-परंपराओं के तत्वों को भी समाहित करता है। इसमें अनेक ऐसे देवता और विश्वास पाए जाते हैं जो अन्य वेदों में नहीं मिलते, जिससे यह पता चलता है कि यह विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं का एक संगम था। यह वेद न केवल बीमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए, बल्कि कृषि को बेहतर बनाने, विवाह को सफल बनाने और यहां तक कि राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए भी मंत्र और प्रार्थनाएँ प्रदान करता है। अथर्ववेद को अक्सर 'ब्रह्मवेद' भी कहा जाता है, जो इसे आध्यात्मिक और जादुई ज्ञान का सर्वोच्च स्रोत मानता है। इसके कुछ भाग औषधीय पौधों और उपचार विधियों का विस्तृत वर्णन करते हैं, जो प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद के शुरुआती सिद्धांतों की नींव रखते हैं। यह अपने समय के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को समझने के लिए एक अमूल्य स्रोत है, विशेष रूप से आम लोगों की मान्यताओं और प्रथाओं के संबंध में।
वैदिक समाज की मूल इकाई परिवार थी, जो पितृसत्तात्मक थी। प्रारंभिक वैदिक काल में, सामाजिक स्तरीकरण बहुत कठोर नहीं था और वर्ण व्यवस्था, हालांकि मौजूद थी, जन्म के बजाय कर्म पर आधारित थी। समाज को चार मुख्य वर्णों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। उत्तर वैदिक काल तक, यह व्यवस्था अधिक कठोर हो गई और जन्म पर आधारित हो गई। महिलाओं की स्थिति प्रारंभिक वैदिक काल में अपेक्षाकृत अच्छी थी; उन्हें शिक्षा प्राप्त करने, धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने और यहां तक कि भजन रचने की भी स्वतंत्रता थी। हालांकि, उत्तर वैदिक काल में उनकी स्थिति में धीरे-धीरे गिरावट आई। 'सभा' और 'समिति' जैसी संस्थाएं थीं, जो राजनीतिक चर्चाओं और निर्णय लेने के लिए महत्वपूर्ण सभाएं थीं।
प्रारंभिक वैदिक काल में अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से देहाती थी, जिसमें पशुपालन, विशेष रूप से गायों का पालन-पोषण, जीवन का केंद्र था। गायों को धन का प्रतीक माना जाता था। कृषि भी मौजूद थी लेकिन गौण थी। उत्तर वैदिक काल में कृषि का महत्व काफी बढ़ गया। लोहे के औजारों के आगमन ने जंगलों को साफ करने और अधिक भूमि पर खेती करने में मदद की, जिससे अधिशेष उत्पादन संभव हुआ। जौ, गेहूं, चावल और दालें मुख्य फसलें थीं। व्यापार और वाणिज्य भी धीरे-धीरे विकसित हुए, हालांकि वे प्रारंभिक वैदिक काल में सीमित थे। विनिमय प्रणाली प्रचलित थी, और 'निष्क' जैसे सोने के टुकड़े शायद विनिमय के माध्यम के रूप में उपयोग किए जाते थे। शिल्पकार, जैसे बढ़ई, कुम्हार, धातुकर्मी और बुनकर भी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
प्रारंभिक वैदिक काल में राजनीतिक संगठन अपेक्षाकृत सरल था। 'जन' (जनजाति) सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई थी, जिसका मुखिया 'राजन' या राजा होता था। राजा मुख्य रूप से जनजाति का रक्षक होता था और उसे अपनी शक्ति 'सभा' और 'समिति' जैसी लोकप्रिय सभाओं से प्राप्त होती थी। उत्तर वैदिक काल में, राजनीतिक संरचनाएं अधिक जटिल और केंद्रीकृत हो गईं। 'जन' 'जनपद' (क्षेत्रीय राज्य) में विकसित हुए, और राजा की शक्ति बढ़ी, जिससे वंशानुगत राजतंत्रों का उदय हुआ। यज्ञ जैसे अश्वमेध और राजसूय राजा की सर्वोच्च शक्ति और संप्रभुता को दर्शाते थे। इन परिवर्तनों ने आगे चलकर महाजनपदों के उदय की नींव रखी, जो प्राचीन भारत के बड़े क्षेत्रीय राज्यों का प्रतिनिधित्व करते थे।
वैदिक धर्म मुख्य रूप से प्रकृति की शक्तियों के बहुदेववादी पूजन पर आधारित था, जिसमें इंद्र, अग्नि, वरुण और सूर्य जैसे देवता प्रमुख थे। यज्ञ और बलि अनुष्ठान केंद्रीय थे, और उनका उद्देश्य देवताओं को प्रसन्न करना और भौतिक समृद्धि प्राप्त करना था। उत्तर वैदिक काल में, धार्मिक अनुष्ठान अधिक जटिल और महंगे हो गए, जिससे पुरोहितों (ब्राह्मणों) का महत्व बढ़ गया। इसी अवधि में, उपनिषदों का उदय हुआ, जिन्होंने वैदिक धर्म में एक महत्वपूर्ण दार्शनिक मोड़ लाया। उपनिषद गहन दार्शनिक विचारों, जैसे आत्मा (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्म (सार्वभौमिक आत्मा) की एकता, कर्म का सिद्धांत, पुनर्जन्म और मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) पर केंद्रित थे। इन विचारों ने हिंदू धर्म और बाद के भारतीय दर्शन की नींव रखी।
वैदिक काल ने भारतीय सभ्यता के लिए एक मजबूत नींव रखी। वेदों का साहित्यिक, धार्मिक और दार्शनिक महत्व अद्वितीय है। उन्होंने संस्कृत भाषा को विकसित किया, जो आज भी भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस काल की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं ने बाद के साम्राज्यों और समाजों को आकार दिया। उपनिषदों के दार्शनिक विचार आज भी विश्वभर के विचारकों को प्रभावित करते हैं। वैदिक काल न केवल प्राचीन भारत के इतिहास का एक अध्याय है, बल्कि यह एक जीवित परंपरा है जो सहस्राब्दियों से भारतीय जीवन को प्रेरित करती रही है। क्या आज के आधुनिक समाज में प्राचीन वैदिक ज्ञान की कोई प्रासंगिकता बची है?