Answer: श्रीगुप्त
भारतीय इतिहास में गुप्त साम्राज्य (लगभग 320 ईस्वी से 550 ईस्वी) को 'भारत का स्वर्ण युग' कहा जाता है। यह वह काल था जब कला, विज्ञान, साहित्य और दर्शन ने अभूतपूर्व ऊंचाइयों को छुआ। इस साम्राज्य ने भारतीय संस्कृति, प्रशासन और सामाजिक जीवन पर गहरा स्थायी प्रभाव डाला। गुप्त काल को सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रगति के मील के पत्थर के रूप में याद किया जाता है, जिसने भावी पीढ़ियों के लिए उच्च मानक स्थापित किए। इस दौर में भारत ने विश्व मंच पर अपनी बौद्धिक और कलात्मक श्रेष्ठता का प्रदर्शन किया।
गुप्त वंश की नींव श्रीगुप्त नामक एक शासक ने तीसरी शताब्दी के अंत में, लगभग 275 ईस्वी के आसपास, मगध के क्षेत्र में रखी थी। उनके शासनकाल के बारे में सीमित जानकारी उपलब्ध है, लेकिन उन्हें गुप्त वंश का मूल संस्थापक माना जाता है। श्रीगुप्त 'महाराजा' की उपाधि धारण करते थे, जो इंगित करता है कि वे अधीनस्थ सामंत हो सकते थे। उनके उत्तराधिकारी घटोत्कच गुप्त थे, जिन्होंने भी 'महाराजा' की उपाधि का प्रयोग किया।
साम्राज्य का वास्तविक विस्तार और मजबूती चंद्रगुप्त प्रथम (लगभग 320-335 ईस्वी) के शासनकाल में हुई। उन्होंने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण कर संप्रभुता का प्रतीक दिया। चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह कर अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत की। इस वैवाहिक गठबंधन ने उन्हें लिच्छवियों का समर्थन दिलाया, जो शक्तिशाली गणराज्य था। यह एक रणनीतिक कदम था जिसने मगध के आसपास के क्षेत्रों में गुप्तों के प्रभाव को बढ़ाया और एक बड़े साम्राज्य की नींव डाली।
चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी, समुद्रगुप्त (लगभग 335-375 ईस्वी), को भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में से एक माना जाता है। उनकी सैन्य विजयों के कारण उन्हें 'भारत का नेपोलियन' कहा जाता है। इलाहाबाद प्रशस्ति (प्रयाग प्रशस्ति) उनके दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित है, जो समुद्रगुप्त की विस्तृत विजयों का वर्णन करती है। उन्होंने उत्तर भारत के नौ राजाओं को पराजित किया और दक्षिण भारत के बारह राजाओं को हराकर अधीनता स्वीकार करवाई। समुद्रगुप्त एक महान योद्धा होने के साथ-साथ कला और साहित्य के संरक्षक भी थे; उनके सिक्कों पर उन्हें वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
समुद्रगुप्त के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ईस्वी), जिन्हें 'विक्रमादित्य' के नाम से भी जाना जाता है, ने गुप्त साम्राज्य को उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचाया। उनके शासनकाल को गुप्त काल का 'स्वर्ण युग' माना जाता है। उन्होंने पश्चिमी भारत में शक क्षत्रपों को पराजित करके गुजरात और काठियावाड़ के समृद्ध क्षेत्रों को साम्राज्य में मिलाया, जिससे गुप्तों को पश्चिमी तटों तक पहुँच मिली और व्यापार में वृद्धि हुई। चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौ रत्न (नवरत्न) थे, जिनमें कालिदास जैसे महान कवि और अमरसिंह जैसे विद्वान शामिल थे। दिल्ली में स्थित लौह स्तंभ उनके काल की धातु विज्ञान की उत्कृष्ट मिसाल है।
गुप्त काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति हुई। आर्यभट्ट ने शून्य, दशमलव प्रणाली, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने और सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण के वैज्ञानिक कारणों का प्रतिपादन किया। वराहमिहिर ने ज्योतिष और खगोल विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रह्मगुप्त ने गणित और खगोल विज्ञान में कई सिद्धांतों को प्रतिपादित किया। साहित्य के क्षेत्र में कालिदास ने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्', 'मेघदूतम्' जैसी कालजयी कृतियों की रचना की। विशाखदत्त ने 'मुद्राराक्षस' और शूद्रक ने 'मृच्छकटिकम्' जैसे नाटक लिखे। पंचतंत्र की कहानियाँ भी इसी काल में संकलित की गईं।
गुप्तकालीन कला और वास्तुकला ने भारतीय कला के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा। देवगढ़ का दशावतार मंदिर, गुप्त वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें जटिल नक्काशी और मूर्तिकला का अद्भुत प्रदर्शन है। अजंता और एलोरा की गुफाओं में बने भित्तिचित्र और मूर्तियां, विशेषकर सारनाथ बुद्ध की मूर्ति, गुप्त काल की मूर्तिकला की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। इन कलाकृतियों में एक विशिष्ट शैली और आध्यात्मिक गहराई दिखाई देती है, जिसने बाद की भारतीय कला पर भी गहरा प्रभाव डाला। यह काल चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला के लिए एक स्वर्ण युग था।
प्रशासनिक व्यवस्था सुसंगठित और केंद्रीकृत थी, जिसने स्थानीय स्वायत्तता को भी बढ़ावा दिया। साम्राज्य को भुक्तियों (प्रांतों) में, और भुक्तियों को विषयों (जिलों) में बांटा गया था। ग्राम स्तर पर ग्राम सभाएँ और पंचायती राज व्यवस्था सक्रिय थी। भूमि राजस्व आय का मुख्य स्रोत था, और सुव्यवस्थित न्याय प्रणाली प्रजा को न्याय सुनिश्चित करती थी। आर्थिक समृद्धि भी चरम पर थी; आंतरिक और बाहरी व्यापार फल-फूल रहे थे। भारत ने रोम, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन जैसे देशों के साथ सक्रिय व्यापारिक संबंध स्थापित किए। सोने और चांदी के सिक्के प्रचुर मात्रा में जारी किए गए, जो आर्थिक संपन्नता के द्योतक थे।
सामाजिक रूप से, वर्ण व्यवस्था मौजूद थी, लेकिन यह कुछ हद तक लचीली थी। महिलाओं की स्थिति कुछ हद तक बेहतर थी, उन्हें शिक्षा प्राप्त करने और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने की अनुमति थी। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे, जहाँ भारत और विदेशों से छात्र अध्ययन करने आते थे। बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म (विशेषकर वैष्णव और शैव धर्म) सह-अस्तित्व में थे और राज्याश्रय प्राप्त करते थे, जिससे धार्मिक सहिष्णुता का वातावरण बना रहा। यह सांस्कृतिक समागम का एक महत्वपूर्ण काल था।
पांचवीं शताब्दी के मध्य से गुप्त साम्राज्य का पतन शुरू हुआ। इसका मुख्य कारण हूणों के लगातार आक्रमण थे, जिन्होंने उत्तर-पश्चिमी सीमाओं पर दबाव डाला। स्कंदगुप्त ने हूणों को सफलतापूर्वक खदेड़ा, लेकिन इन युद्धों ने साम्राज्य के संसाधनों को समाप्त कर दिया। आंतरिक विद्रोह, प्रांतों की बढ़ती स्वायत्तता और कमजोर उत्तराधिकारी भी पतन के प्रमुख कारण बने। छठी शताब्दी के मध्य तक, गुप्त साम्राज्य छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों में टूट गया, जिससे केंद्रीय शक्ति समाप्त हो गई और भारत राजनीतिक विखंडन के दौर में चला गया।
निष्कर्षतः, गुप्त साम्राज्य ने भारतीय सभ्यता पर अमिट छाप छोड़ी। कला, विज्ञान, साहित्य, दर्शन और प्रशासन के क्षेत्र में इसकी उपलब्धियां इतनी विशाल थीं कि इसने भारत के 'स्वर्ण युग' के रूप में अपनी जगह बनाई। इसने भावी पीढ़ियों के लिए एक सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत छोड़ी, जिसने दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य एशिया तक भारतीय प्रभाव को फैलाया। यह सिर्फ एक राजवंश का शासनकाल नहीं था, बल्कि एक ऐसा युग था जिसने भारतीय प्रतिभा और रचनात्मकता को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाया। क्या भारत में फिर कभी ऐसा 'स्वर्ण युग' आ सकता है, जहाँ ज्ञान और कला इतनी व्यापक रूप से समृद्ध हों?