Answer: धोलावीरा
प्राचीन भारतीय सभ्यताएँ विश्व की सबसे पुरानी और सबसे विकसित सभ्यताओं में से एक हैं, जिन्होंने मानव इतिहास पर गहरा प्रभाव डाला है। इनमें सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है, अग्रणी है। यह सभ्यता लगभग 2500 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक फली-फूली और इसने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों में एक विस्तृत क्षेत्र को कवर किया। इसकी विशेषताएँ उन्नत शहरी नियोजन, वास्तुकला, व्यापार और अद्वितीय कलाकृतियों में निहित हैं। इस सभ्यता के प्रमुख स्थलों में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल, कालीबंगा और राखीगढ़ी शामिल हैं, लेकिन धोलावीरा एक विशेष पहचान रखता है, खासकर अपनी असाधारण जल प्रबंधन प्रणाली के लिए। यह स्थल भारतीय पुरातत्व के लिए एक महत्वपूर्ण खोज है और वैश्विक धरोहर के रूप में भी इसकी मान्यता है।
धोलावीरा, जो आज गुजरात के कच्छ जिले में खादिरबेट द्वीप पर स्थित है, सिंधु घाटी सभ्यता के सबसे बड़े और सबसे अच्छी तरह से संरक्षित शहरी बस्तियों में से एक है। इसकी खोज 1967-68 में जगत्पति जोशी ने की थी, लेकिन 1990 के दशक में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा आर.एस. बिष्ट के नेतृत्व में किए गए व्यापक उत्खनन ने इसकी विशिष्टताओं को उजागर किया। धोलावीरा को 2021 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया, जो इसकी अद्वितीय ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्य को प्रमाणित करता है। यह स्थल अपने तीन-स्तरीय शहर नियोजन के लिए जाना जाता है - एक गढ़ (किला), एक मध्य शहर और एक निचला शहर - जो अन्य हड़प्पा स्थलों से भिन्न है जहाँ आमतौर पर दो-स्तरीय विभाजन (गढ़ और निचला शहर) देखा जाता है।
धोलावीरा की सबसे असाधारण विशेषता इसकी उन्नत और जटिल जल प्रबंधन प्रणाली है। यह स्थल एक शुष्क क्षेत्र में स्थित होने के बावजूद, इसके निवासियों ने वर्षा जल संचयन और संरक्षण की उत्कृष्ट तकनीकों का विकास किया था। उन्होंने शहर के भीतर और आसपास कई विशाल जलाशयों (लगभग 16) और बांधों का निर्माण किया, जो पानी को इकट्ठा करने, संग्रहीत करने और वितरण करने के लिए बनाए गए थे। ये जलाशय विभिन्न आकारों और गहराइयों के थे, जिनमें से कुछ तो पत्थरों से कटे हुए थे और कुछ कृत्रिम रूप से बनाए गए थे। इनमें मानसर और मनहर नामक दो मौसमी धाराओं से आने वाले पानी को मोड़ने के लिए एक जटिल नेटवर्क शामिल था।
यह प्रणाली केवल वर्षा जल संचयन तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें कुशल जल निकासी चैनल, बांध और पत्थरों से बनी नहरें भी शामिल थीं जो शहर के विभिन्न हिस्सों में पानी पहुँचाती थीं। धोलावीरा के इंजीनियरों ने ढलान और गुरुत्वाकर्षण का उपयोग करके पानी को जलाशयों में निर्देशित करने के लिए सटीक योजना बनाई थी। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मानसून के दौरान गिरने वाला एक-एक बूंद पानी बर्बाद न हो। यह न केवल पीने के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करता था बल्कि संभवतः कृषि और अन्य शहरी आवश्यकताओं के लिए भी उपयोग होता था। इस प्रणाली की सटीकता और दीर्घायु दर्शाती है कि हड़प्पाकालीन लोगों के पास इंजीनियरिंग और हाइड्रोलिक्स का गहरा ज्ञान था।
धोलावीरा का शहरी नियोजन भी जल प्रबंधन प्रणाली के साथ एकीकृत था। शहर का प्रत्येक भाग - गढ़, मध्य शहर और निचला शहर - इस जल नेटवर्क से जुड़ा हुआ था। खुले मैदान और सार्वजनिक स्थान भी इस प्रणाली का हिस्सा थे, जहाँ वर्षा जल को एकत्र करने के लिए विशेष व्यवस्था की गई थी। इस तरह की एक विस्तृत और कुशल प्रणाली को विकसित करने और बनाए रखने की क्षमता, उस समय की तकनीकी प्रगति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह दर्शाता है कि प्राचीन सभ्यताओं ने अपने पर्यावरण को समझने और उससे अनुकूलन करने में कितनी महारत हासिल की थी, खासकर ऐसे क्षेत्रों में जहाँ जल एक दुर्लभ संसाधन था।
जल प्रबंधन के अलावा, धोलावीरा में कई अन्य महत्वपूर्ण पुरातात्विक खोजें हुई हैं। यहाँ एक विशाल सार्वजनिक सभा स्थल या स्टेडियम मिला है, जो शायद अनुष्ठानों या आयोजनों के लिए उपयोग होता था। शहर की दीवारें विशाल और मजबूत थीं, जो शायद सुरक्षा और बाढ़ नियंत्रण दोनों के लिए थीं। धोलावीरा से प्राप्त कलाकृतियों में मिट्टी के बर्तन, मुहरें, आभूषण और उपकरण शामिल हैं, जो उस समय के शिल्प कौशल और व्यापार नेटवर्क की जानकारी देते हैं। यहाँ से प्राप्त 10 बड़े साइनेज के एक अनूठे शिलालेख को 'धोलावीरा साइनबोर्ड' के नाम से जाना जाता है, जो सिंधु लिपि का एक दुर्लभ और महत्वपूर्ण उदाहरण है, हालांकि इसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
धोलावीरा का महत्व केवल उसकी जल प्रबंधन प्रणाली या शहरी नियोजन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह सिंधु घाटी सभ्यता के क्रमिक विकास और उसके पतन के बारे में भी महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। माना जाता है कि लगभग 1900 ईसा पूर्व के आसपास सिंधु घाटी सभ्यता का पतन हुआ, जिसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं, जैसे जलवायु परिवर्तन, नदियों के मार्ग में बदलाव, अत्यधिक वनों की कटाई और प्राकृतिक आपदाएँ। धोलावीरा के पतन के साक्ष्य भी इन सिद्धांतों का समर्थन करते हैं, जहाँ उत्खनन से पता चला है कि अंतिम चरणों में शहर की आबादी कम हो गई और जल स्रोतों का अत्यधिक उपयोग हुआ, जिससे संभवतः संसाधनों पर दबाव पड़ा।
धोलावीरा और अन्य हड़प्पा स्थलों से प्राप्त जानकारी हमें प्राचीन भारतीय समाज की जटिलता और बुद्धिमत्ता को समझने में मदद करती है। शहरी नियोजन, स्वच्छता, वास्तुकला, धातु विज्ञान और व्यापार में उनकी उपलब्धियाँ अतुलनीय थीं। इन सभ्यताओं ने आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मजबूत नींव रखी। आज भी, धोलावीरा की जल संचयन प्रणाली आधुनिक दुनिया के लिए एक प्रेरणा है, खासकर जलवायु परिवर्तन और जल संकट के युग में। यह हमें सिखाता है कि सीमित संसाधनों का बुद्धिमानी से उपयोग कैसे किया जाए और टिकाऊ जीवन शैली कैसे विकसित की जाए।
इन प्राचीन सभ्यताओं का अध्ययन केवल अतीत की कहानियाँ नहीं है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण सबक प्रदान करता है। धोलावीरा ने हमें दिखाया कि कैसे एक समुदाय एक शुष्क वातावरण में पनप सकता है, यदि उसके पास दूरदर्शिता और इंजीनियरिंग कौशल हो। यह हमें पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान रखने की शिक्षा देता है। धोलावीरा की कहानी इस बात का प्रमाण है कि मानव नवाचार और दृढ़ता की कोई सीमा नहीं होती, खासकर जब जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों को सुरक्षित करने की बात आती है।
क्या हम आज भी प्राचीन सभ्यताओं से पर्यावरण संरक्षण और संसाधन प्रबंधन के संबंध में कुछ सीख सकते हैं, खासकर जब हमारी आधुनिक तकनीक ने हमें प्रकृति से दूर कर दिया है?